Book Title: Vajjalagga me Jivan Mulya
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 可可可可可 A. ALIKKILLIAL 加者可在比上中国军事53 :31 上一一一 14 。 可是其1月 - वज्जालग्ग में जीवन-मूल्य 了一下, D डॉ. कमलचन्द सोगाणी 項目。 JUT JU प्राकृत भारती अकादमी जयपुर JUT JUTJUT an Edition or tonal or P ut Us | 2015 ye Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भारती पुष्प-44 वज्जालग्ग में जीवन - मूल्य सम्पादक : . डॉ. कमलचन्द सोगाणी प्रोफेसर, दर्शन विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर (राजस्थान) प्रकाशक : प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर श्री जैन श्वे. नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ, मेवानगर For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : देवेन्द्रराज मेहता सचिव, प्राकृत भारती अकादमी, 3826, यति श्यामलालजी का उपाश्रय, मोतीसिंह भोमियों का रास्ता, जौहरी बाजार, जयपुर-302003 ( राजस्थान ) पारसमल भंसाली अध्यक्ष, श्री जैन श्वे. नाकोड़ा पार्श्वनाथ, तीर्थं पो. मेवानगर, स्टेशन बालोतरा, पि. को . 344 025, जि. बाड़मेर (राज.) द्वितीय संस्करण © सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन मूल्य बीस रुपये मुद्रक : एम. एल. प्रिण्टसं जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञान के अन्धकार को हटाने वाले, जीवन-मूल्यों के प्रसारक तथा पर-उपकार में लीन मास्टर मोतीलालजी संघी (संस्थापक, श्री सन्मति पुस्तकालय, जयपुर) को सादर समर्पित For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. प्रकाशकीय 2. प्राक्कथन अनुक्रमणिका 3. प्रस्तावना की 4. वज्जालग्ग में जीवन-मूल्य गाथाएँ एवं हिन्दी अनुवाद 5. संकेत-सूची 6. व्याकरणिक विश्लेषरण 7. पाठ सुधार 8. वज्जालंग्ग में जीवन-मूल्य एवं वज्जालग्ग का गाथा- कम 8. सहायक पुस्तकें एवं कोश ✔ For Personal & Private Use Only पृष्ठ क-ङ च-ज i-xiv 1-33 34-35 36-65 66-67 68-70 71-72 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय डॉ. कमलचन्द जी सोगारणी द्वारा चयनित एवं सम्पादित " वज्जालग्ग में जीवन-मूल्य" नामक पुस्तक प्राकृत भारती के पुष्प 44 के रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर और श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ, मेवानगर को हार्दिक प्रसन्नता है । प्राकृत भाषा में रचित सुभाषितों / सूक्ति कोषों की परम्परा में " वज्जालग्गं" का अनुपम स्थान है । महाकवि हाल की गाहासतसई के पश्चात् सूक्ति कोषों में " वज्जालग्गं" प्रमुख रचना मानी जाती है । गाहा सत्तसई की अपेक्षा भी विषय निर्धारण कर मुक्ताओं का एक ही स्थान पर संकलन इसकी प्रमुख विशेषता है । जिस प्रकार महाकवि हाल ने गाहा सत्तसई में सूक्ति गाथा के पश्चात् गाथाकर्त्ता कवि का नामोल्लेख किया है, परन्तु इसमें जयवल्लभ ने कवियों के नाम नहीं दिए है, यह खटकने वाली बात अवश्य है । कवियों के नाम न होने से यह किस कवि की या किस ग्रन्थ की गाथा है, जानकारी प्राप्त नहीं होती । वज्जालग्गं की अनेक रसपेशल एवं सरस गाथायें ध्वन्यालोक, काव्य प्रकाश, साहित्यदर्पण, काव्यानुशासन, सरस्वती कण्ठाभरण आदि प्रचुर ग्रन्थों में उद्धृत हैं, परन्तु कहीं भी वज्जालग्गं का नामोल्लेख नहीं है । सम्भव है साहित्य - शास्त्र के प्राचार्यों ने अन्य किसी स्रोत से उक्त गाथायें प्राप्त की हों ! 1 जयवल्लभ ने चउपन्नमहापुरुष चरियं, लीलावई, कुवलयमाला, भवभावना प्रभृति जैन रचनात्रों की गाथायें भी इसमें संकलित की हैं । For Personal & Private Use Only [ क Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयवल्लभ-वज्जालगं के मंगलाचरण (पद्य 1) में "सम्वन्नुवयणपंकयणिवासिणि परमिऊण सुयदेवि" सर्वज्ञ के मुख कमल में निवास करने वाली "श्रुतदेवी" शब्दों से स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ के संग्रहकार "जयवल्लभ" जैन मुनि थे। इस ग्रन्थ के टीकाकार बृहद्गच्छीय श्री रत्नदेव के मतानुसार श्वेताम्बरशिरोमणिर्जयवल्लभो नाम कविः" जयवल्लभ श्वेताम्बर परम्परा के थे। प्रो. माधव वासुदेव पटवर्धन ने अपनी प्रस्तावना में जयवल्लभ का समय निर्धारण करते हुए लिखा है (पृ. 18 से 23)-वाक्पतिराज (750 ई.) की एक गांथा वज्जालग्गे में संगृहीत है एवं इसकी टीका का रचना काल वि.सं. 1393 ई. 1336 है, अत: जयवल्लभ का समय ई. 750 से 1336 के मध्य का है। जबकि विश्वनाथ पाठक ने (भूमिका पृ. 3 से 6) ग्रन्थ की अपभ्रश बहुलं भाषा को ध्यान में रख कर इसका रचना काल 1123 ई. और 1336 ई. के बीच का माना है। तथापि यह निश्चित है कि यह ग्रन्थ एक सहस्राब्दी पूर्व का तो है ही। वज्जालग्ग-प्रो. एच. डी. वेल्हणकर ने जिनरत्न कोष (पृ. 236 एवं 340) में इस ग्रन्थ के कई माम-पर्याय दिये हैं-वज्रालय, विज्जाहल, वज्जालय, विद्यालय और पद्यालय । किन्तु, इसका शुद्ध नाम "वज्जालग्गं" ही है; जिसका संस्कृत रूप बनता है "व्रज्यालग्न" । इस ग्रन्थ के अनुवादक विश्वनाथ पाठक के अनुसार 'वज्जा'-व्रज्या का अर्थ है पद्धति और 'लग्ग' लंग्न का अर्थ है प्रकरण अधिकार । "ज्यामिः लग्नं निबद्ध काव्यं व्रज्यालग्नम् । अर्थात् प्रकरणबद्ध रचना या प्रज्याबद्ध शैली में रंचा गया व्रज्यालग्नं कहलाता है। प्रस्तुत संग्रह में गाथायें प्रकरण के अनुसार रखी गई हैं, अतः "वज्जालग्गं" नाम ही उपयुक्त है । प्रकरण एवं गाथा संख्या-रत्नदेव की टीका में "गाहादार" की 1. वज्जालग्गं : भूमिका पृ. 1 से 3 ख ] For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम गाथा में इसको "सत्तसइय" बताया है । अतः संभव है कि प्रारम्भ में इसमें केवल सात सौ गाथानों का ही संग्रह किया गया हो । कालान्तर में इसके कलेवर में वृद्धि होती रही हो । पहले मूल ग्रन्थ में 48 वज्जायें और सात सौ गाथायें ही हों । इस समय इसमें 95 वज्जायें और 795 गाथायें पाई जाती हैं । विभिन्न प्रतियों की अतिरिक्त गाथाओं को मिला देने पर यह संख्या बढ़कर 996 हो जाती है । 1 ग्रन्थ रचना का उद्देश्य - वज्जालग्गं की रचना / संकलन के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए विश्वनाथ पाठक ने लिखा है :- " संग्रहकार के संग्रह का उद्देश्य भले ही त्रिवर्ग रहा हो, मुझे इस रचना का उद्देश्य कुछ अन्य ही प्रतीत होता है, जो किसी भी दशा में कम महत्वपूर्ण नहीं है । तीसरी वज्जा में प्राकृत काव्यों, प्राकृत कवियों और प्राकृत काव्यों के विदग्ध पाठकों को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया गया है। देशी शब्दों से रचित, मधुर शब्दों और अक्षरों में निबद्ध स्फुट - गम्भीर गूढार्थ प्राकृत काव्यों को पढ़ने का उपदेश दिया गया है । इतना ही नहीं, यह भी कहा गया है कि ललित, मधुराक्षरयुक्त, युवतीजनवल्लभ, शृंगारपूर्ण प्राकृत काव्यों के रहते कौन संस्कृत पढ़ सकता है ? इससे स्पष्ट परिलक्षित होता है कि ग्रंथकार बज्जालग्गं के माध्यम से प्राकृत भाषा और साहित्य का प्रचार और प्रसार चाहते थे । वस्तुत: इसी उद्द ेश्य को समक्ष रखकर उन्होंने इतस्ततः बिखरी प्राकृत की अमूल्य गाथाओं को संगृहीत कर एक ऐसा मनोरम काव्य-ग्रन्थ बनाया, जिसकी सरसता से आकृष्ट होकर संस्कृत काव्य-प्रेमी भी संस्कृत छोड़ प्राकृत काव्य का ही रसास्वादन करें । वज्जालग्गं की सरसता को देखते हुए हम निःसंकोच कह सकते हैं कि संग्रहकार अपने उद्देश्य में पूर्ण सफल हैं । इसके अतिरिक्त वज्जालग्गं के संग्रह का अन्य भी हेतु है । उस युग में धीरे-धीरे अपभ्रंश और प्राकृत को छोड़कर सामान्य जन लोकभाषा काव्य की ओर प्राकृष्ट हो रहे थे । ऐसी दशा में प्राकृत की श्रेष्ठ एवं प्रसिद्ध रचनाओं की सुरक्षा का भी प्रश्न था । संग्रहकार की सूक्ष्म दृष्टि इस For Personal & Private Use Only [ ग Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावी संकट पर पड़ी और उन्होंने श्रेष्ठ रचनाओं को एकत्र कर उन्हें नष्ट होने से बचा लिया, साथ ही पाठकों को एक ही ग्रन्थ में निर्दिष्ट विषयों पर विभिन्न कवियों की इन्द्रधनुषी कल्पनाओं से मंडित मनोहर सूक्तियों के रसास्वादन का अमूल्य अवसर भी प्रदान किया।" (वज्जालग्गं भूमिका पृ. 17) टीकायें एवं अनुवाद-इस ग्रन्थ पर दो संस्कृत टीकायें प्राप्त हैं:1. बृहद्गच्छीय श्रीभानभद्रसूरि के प्रपौत्र शिष्य, श्री हरिभद्रसूरि के पौत्र शिष्य, श्री धर्मचन्द्र के शिष्य श्री रत्नदेव ने वि. सं. 1393 में संस्कृत टीका लिखी थी। यह टीका प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद द्वारा 1969 में वज्जालग्गं ग्रन्थ में प्रकाशित हो चुकी है। 2. उपकेशगच्छीय श्री सिद्धसूरि के शिष्य उपाध्याय धनसार ने "विषमार्थ। पदप्रदीप" नामक संस्कृत टीका की रचना वि. सं. 1553 में की थी। यह टीका अभी तक अप्रकाशित है । अन्य अनुवादों में सर्वप्रथम जर्मन विद्वान वेबर द्वारा अंग्रेजी अनुवाद के साथ इसे प्रकाशित किया गया था जो 1944 में बिब्लियोथिका इण्डिका क्रमांक 227 पर प्रकाशित हुआ था। तत्पश्चात् प्रो. माधव वासुदेव पटवर्धन ने अंग्रेजी में विस्तृत भूमिका एवं अंग्रेजी अनुवाद के साथ संपादन किया था, जो प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, " अहमदाबाद द्वारा सन् 1969 में प्रकाशित हुआ था। तदनन्तर विश्वनाथ पाठक ने हिन्दी अनुवाद के साथ विस्तृत भूमिका लिखी, जो पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी से सन् 1984 में प्रकाशित हुई। इसी संस्करण के प्रकाशकीय एवं सम्पादकीय (पृ.ख) के अनुसार पं. बेचरदासजी दोषी ने इसका गुजराती अनुवाद किया था जो अभी तक : प्रकाशित नहीं हो पाया है। घ ] * For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमार-इसी क्रम में जीवन-मूल्य से संबंधित केवल 100 गाथानों का चयन कर अनुवाद एवं व्याकरणिक विश्लेषण के साथ डॉ. कमलचन्द जी सोगाणी, प्रोफेसर, दर्शन विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर ने इसका सम्पादन किया है। अतः हम उनके प्राभारी हैं। साथ ही सुन्दर मुद्रण के लिये एम. एल. प्रिन्टर्स, जोधपुर के अधिकारी भी धन्यवाद के पात्र हैं। हम आशा करते हैं कि पाठकगण, जयवल्लभीय प्रस्तुत पुस्तक में प्रतिपादित जोवन मूल्यों को समझकर, प्राचरण कर मानवता का विकास अवश्य करेंगे। पारसमल भंसाली अध्यक्ष, नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ, मेवानगर म. विनयसागर . निदेशक, प्राकृत भारती अकादमी जयपुर देवेन्द्रराज मेहता सचिव, प्राकृत भारती अकादमी जयपुर For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन वज्जालग्गं एक प्राचीन ग्रन्थ है। इसकी रचना का समय पूर्णरूप से निश्चित नहीं है, पर, कुछ विद्वानों के मतानुसार यह 1300 वर्ष से भी पुराना ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ में धर्म, अर्थ तथा काम के विभिन्न पहलुओं पर गाथायें प्रस्तुत की गई हैं। यह प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुसार मानव जीवन को एकांगी के स्थान पर सर्वांगीण मानता है। इसलिए धर्म के साथ अर्थ और काम का भी इसमें विवेचन किया गया है। मानवीय जीवन में विविधता है और उसे एक पक्षीय नहीं बनाया जा सकता। प्रस्तुत पुस्तक में जीवन मूल्यों से सम्बन्धित 100 गाथाओं का चयन किया गया है । यह बहुत ही उपयोगी और रुचिकर है। भारतीय परम्परा में इस बात पर बहुत ही बल दिया गया है कि व्यक्ति एक प्रामाणिक जीवन जीये। जैन दर्शन और साहित्य में भी यह विचार महत्वपूर्ण है । तत्त्वार्थ सूत्र में सम्यग् ज्ञान और सम्यक दर्शन के अतिरिक्त सम्यक चारित्र की भी आवश्यकता बतायी गयी है। तीनों के सम्मिश्रण से ही मुक्ति सम्भव है। हर युग में कई दार्शनिक व ज्ञानी पुरुष हुए हैं। पर, केवल वे ही मान्य और प्रभावी हुए, जिन्होंने अपने ज्ञान और दर्शन को जीवन में उतारा और चरित्र की अमिट छाप छोड़ी। आज का जीवन भौतिकता प्रधान है । मानव से अधिक मशीन महत्वपूर्ण है। धर्म की तुलना में यह काम और अर्थ प्रधान युग है । ऐसी भौतिक चकाचौंध में भी पूजनीय तो वे ही लोग हैं जो शुद्ध, समर्पित, सेवाभावी, साधनारत जीवन जीते हैं और सिद्धान्तों में अडिग हैं। अर्थ वालों में आस्था के स्थान पर ईर्ष्या ही प्राप्त होती है। केवल विद्वत्ता का प्रभाव क्षणिक ही हो सकता है। For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत से कई विद्वान विदेशों में धर्म का प्रचार-प्रसार करने गये। उन्हें प्रारम्भिक सफलता भी मिली। उनके अनगिनत भक्त भी बने, पर कुछ ही समय में उनके अप्रामाणिक जीवन के कारण उनका प्रभाव समाप्त हो गया। किसी ने ठीक ही कहा है कि आज के युग में भक्ति बढ़ी है, पर, नैतिकता घटी है। और, कुछ ही समय में नैतिकता के अभाव में भक्ति का स्थान अवमानना एवं विद्रोह ले लेते हैं । सारांश यह है कि मूल्य-रहित कोई व्यक्ति अथवा समाज अपनी पूर्ण परिणति और प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सका। भारतीय और विशेष रूप से जैन परम्परा कर्म-प्रधान और गुण-मूलक है । पर, कर्म-सिद्धान्त नियतिवाद का पर्याय नहीं है। स्वेच्छा और पुरुषार्थ से व्यक्ति कर्मों के परिणामों को बदल सकता है। उसके लिए उचित जीवन मूल्य और प्राचरण आवश्यक हैं। . वज्जालग्गं में सज्जन पुरुष के गुणों का विवेचन किया गया है । सज्जन व्यक्ति कषाय रहित होता है। वह क्रोध नहीं करता और दूसरों का अनिष्ट नहीं सोचता है । दूसरों का दुःख हरता है । मधुरालापी होता है। दूसरों का उपकार करता है । क्षमा उसका बहुत बड़ा गुण है। वह अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता है। प्रात्म-सम्मानी होता है। उसका संकल्प अडिग है । उसका साहस असीमित है। वह धैर्यशील है, अनासक्त है । परिस्थितियां उसको विचलित नहीं करती हैं । इसके विपरीत दुर्जन व्यक्ति वक्री होते हैं और सज्जनता के विपरीत आचरण करते हैं। अच्छे और बुरे जीवन को बहुत ही सरल, सहज और व्यवहारिक रूप में वज्जालग्गं में प्रस्तुत किया गया है । इस पुस्तक में कोई बुद्धि-विलास नहीं है । आज के जीवन में इस प्रकार के नैतिक विवेचन की अत्यन्त आवश्यकता है। आज धर्म और व्यावसायिक जीवन में विच्छेद हो गया है । धर्म को अलग और व्यवसाय को अलग माना जाता है और व्यवहार में धार्मिक For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांत लागू नहीं किये जाते । यही कारण है कि आज का सामाजिक वातावरण विषाक्त हो गया है। आज हिंसा बहुत बढ़ गई है। धर्म हिंसा के विरोध में है, पर हिंसा से व्यावसायिक लाभ है। अहिंसा को औपचारिक रूप से मानते हुए भी रक्त से सने हुए अर्थ को प्राप्त करने में भी कोई झिझक नहीं है । औपचारिक अहिंसक ऐसा कार्य करें तो इससे अधिक विडम्बना की क्या बात हो सकती है ? अपरिग्रह एक बड़ा सिद्धांत है। फिर भी परिग्रह और अधिक व्याप्त होता जा रहा है। अनेकान्तवाद विभिन्न विचारों और दृष्टियों की सम्भावनाओं को स्वीकारता है। पर असहिष्णुता और कठमुल्लावाद सभी सम्प्रदायों और धर्मों में बढ़ा है। कषाय रहित जीवन शुद्ध जीवन है पर, आज के जीवन में काम, क्रोध, मद, लोभ ईर्षा और मायावीपन अधिक है और ये दुगुण ही आज सम्मानित दर्शन के रूप में मान्य होते जा रहे हैं। इन परिस्थितियों में धर्म एवं व्यवहार में एकरूपता लाने की विशेष आवश्यकता है। आज के इस दूषित वातावरण को बदलने के लिये धर्म और विज्ञान के सम्मिश्रण को आवश्यकता है । अर्वाचीन विज्ञान के साथ कुछ प्राचीन सिद्धांत स्वतः हो पुनर्स्थापित हो रहे हैं । अाज अहिंसा को सबसे बड़ा समर्थन विज्ञान से मिल रहा है। विश्व के संसाधनों का कुछ दशकों में अतिदोहन किया गया है, इसलिये आज अपरिग्रह के प्रति सम्मान की भावना व्यक्त को जारही है। विश्व में प्राज व्याप्त असहिष्णुता के कारण ही सहिष्णुता की आवश्यकता अधिकाधिक स्वीकारी जा रही है। ऐसे वातावरण में मानवीय जीवन मूल्यों को प्रस्तुत करने एवं पुनर्स्थापन करने की संभावनायें और बढ़ी हैं। आवश्यकताओं और संभावनाओं को देखते हुए जीवन-मूल्यों को प्रस्तुत करने का यह बहुत छोटा सा प्रयास है। इसके लिये मैं डॉ. कमलचन्द जी सोगाणी के प्रति आभारी हूँ। डी. पार. मेहता For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना यह सर्व विदित है कि मनुष्य अपनी प्रारंभिक अवस्था से ही रंगों को देखता है, ध्वनियों को सुनता है, स्पर्शों का अनुभव करता है, स्वादों को चखता है, तथा गंधों को ग्रहण करता है । इस तरह उसकी सभी इन्द्रियाँ सक्रिय होती हैं । वह जानता है कि उसके चारों अोर पहाड़ हैं, तालाब हैं, वृक्ष हैं, मकान हैं, मिट्टी के टीले हैं, पत्थर हैं इत्यादि । आकाश में वह सूर्य, चन्द्रमा और तारों को देखता है । ये सभी वस्तुएं उसके तथ्यात्मक जगत का निर्माण करती हैं इस प्रकार वह विविध वस्तुओं के बीच अपने को पाता है । उन्हीं वस्तुओं से वह भोजन, पानी, हवा आदि प्राप्त कर अपना जीवन चलाता है । उन वस्तुओं का उपयोग अपने लिए करने के कारण वह वस्तु जगत का एक प्रकार से सम्राट बन जाता है । अपनी विविध इच्छाओं की तृप्ति भी बहुत सीमा तक वह वस्तु जगत से ही कर लेता है । यह मनुष्य की चेतना का एक आयाम है। धीरे-धीरे मनुष्य की चेतना एक नया मोड़ लेती है। मनुष्य समझने लगता है कि इस जगत में उसके जैसे दूसरे मनुष्य हैं जो उसकी तरह हँसते हैं, रोते हैं, सुखी-दुखी होते हैं। वे उसकी तरह विचारों, भावनाओं और क्रियाओं की अभिव्यक्ति करते हैं । चूकि मनुष्य अपने चारों ओर की वस्तुओं का उपयोग अपने लिए करने का अभ्यस्त होता है, अतः वह अपनी इस प्रवृत्ति के वशीभूत होकर मनुष्यों का उपयोग भी अपनी आकांक्षाओं और आशाओं की पूर्ति के लिए ही करता है । वह चाहने लगता है कि सभी उसी के लिए जीएँ। उसकी निगाह में For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे मनुष्य वस्तुओं से अधिक कुछ नहीं होते हैं। किन्तु उसकी यह प्रवृत्ति बहुत समय तक चल नहीं पाती है। इसका कारण स्पष्ट है । दूसरे मनुष्य भी इसी प्रकार की प्रवृत्ति में रत होते हैं। इसके फलस्वरूप उनमें शक्ति-वृद्धि की महत्वाकांक्षा का उदय होता है । जो मनुष्य शक्ति-वृद्धि में सफल होता है, वह दूसरे मनुष्यों का वस्तुओं की तरह उपयोग करने में समर्थ हो जाता है। पर मनुष्य की यह स्थिति घोर तनाव की स्थिति होती है। अधिकांश मनुष्य जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इस तनाव की स्थिति में होकर गुजर चुके होते हैं । इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह तनाव लम्बे समय तक मनुष्य के लिए असहनीय होता है । इस असहनीयता के साथ-साथ मनुष्य कभी न कभी दूसरे मनुष्यों का वस्तुओं की तरह उपयोग करने में असफल हो जाता है। ये उसके पुनर्विचार के क्षरण होते हैं । वह गहराई से मनुष्य-प्रकृति के विषय में सोचना प्रारम्भ करता है, जिसके फलस्वरूप उसमें सहसा प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्मान-भाव का उदय होता है। वह अब मनुष्य-मनुष्य की समानता और उसकी स्वतन्त्रता का पोषक बनने लगता है। वह अब उनका अपने लिए उपयोग करने के बजाय अपना उपयोग उनके लिए करना चाहता है वह उनका शोषण करने के स्थान पर उनके विकास के लिए चिंतन प्रारंभ करता है । वह स्वउदय के बजाय सर्वोदय का इच्छुक हो जाता है। वह सेवा लेने के स्थान पर सेवा करने को महत्व देने लगता है। उसकी यह प्रवृत्ति उसे तनाव-मुक्त कर देती है और वह एक प्रकार से विशिष्ट व्यक्ति बन जाता है उसमें एक असाधारण अनुभूति का जन्म होता है । इस अनुभूति को ही हम मूल्यों की अनुभूति कहते हैं। वह अब वस्तु-जगत में जीते हुए भी मूल्य जगत में जीने लगता है। उसका मूल्य-जगत में जीना धीरे-धीरे गहराई की ओर बढ़ता जाता है । वह अब मानव-मूल्यों की खोज में संलग्न हो जाता है। वह मूल्यों के लिये ही जीता है और [ व ज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज में उनकी अनुभूति बढ़े इसके लिए अपना जीवन समर्पित कर देता है । यह मनुष्य की चेतना का एक दूसरा आयाम है | वज्जालग्ग में जयवल्लभ ने महाकवियों की विविध अनुभूतियों में मूल्यात्मक अनुभूतियों को भी संजोया है । हमने उन्हीं मूल्यात्मक अनुभूतियों संबंधी गाथाओं में से 100 गाथाओं का चयन कर ' वज्जालग्ग में जीवन-मूल्य' तैयार किया है । अब हम यहाँ ' वज्जालग्ग में जीवन-मूल्य' में चयनित सामाजिक मूल्यों पर चर्चा करेंगे । गुणों (मूल्यों) के ग्रहण में आस्था व्यक्त करते हुए वज्जालग्ग का कथन है कि व्यक्ति द्वारा गुणों ( मूल्यों) का ग्रहरण महान होता है, उसके लिए जन्म- संयोग महान् नहीं होता है ( 85 ) । यदि गुण नहीं हैं, तो उच्च कुल से क्या लाभ है (83) ? कुल से चारित्र उत्तम होता है ( 35 ) । जो व्यक्ति गुण-हीन हैं, वे ही कुल के कारण गर्व प्राकृत - मुक्तक काव्य की परम्परा में वज्जलिग्ग प्राकृत भाषा का एक संग्रह ग्रन्थ है । 'वज्जालग्ग' से अभिप्राय है: विभिन्न विषयों से सम्बन्धित गाथावर्गों का समूह । 'वज्जा से अभिप्राय है 'गाथा - वर्ग' | 'लग्ग' से अभिप्राय है, (पटवर्धन के अनुसार ) ' समूह' । अतः पटवर्धन के अनुसार 'वज्जालग्ग' का अर्थ हुआ 'गाथा वर्गों का समूह' । इसके रचना काल के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है । इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इसकी रचना 750-1337 AD के बीच कभी हुई होगी । 'वज्जालग्ग' के संग्रह कर्ता 'जयवल्लभ' हैं । इसमें धर्म, अर्थ तथा काम सम्बन्धी गाथाओं का संग्रह किया गया है। प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित वज्जालग्ग के संस्करण में 795 गाथाओं के अतिरिक्त 195 गाथाएं परिशिष्ट में दी गई हैं । हमने इन सभी गाथानों में से 100 गाथाओं का चयन 'बज्जालग्ग में जीवन-मूल्य' शीर्षक के अन्तर्गत किया है । जीवन-मूल्य ] For Personal & Private Use Only [ iii Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारण करते हैं । (84)। यह ठीक ही कहा गया है कि दोष तो गुणों से पोंछ दिए जाते हैं-गुणेहि दोसा फुसिज्जति, (86) किन्तु जन्मसंयोग से क्या किया जाता है-जाईह कि व किज्जइ । सच है गुणों से वैभव प्राप्त किया जाता है (87) मूल्यों का धारक मूल्यों के अनुभव से हीन व्यक्ति में कुछ भी परिवर्तन नहीं ला सकता। ठीक ही है जन्म से अन्धे के लिए हाथ में पकड़ा हुआ दीपक निष्फल ही होता है (88)। जिस व्यक्ति के जीवन में मूल्य प्रविष्ट हुए हैं, उसको परलोक में चलेजाने पर भी पश्चाताप नहीं होता (89) । अतः जो लोग मूल्यों का जीवन नहीं जीते है, उनसे किसी को कोई लाभ नहीं होता है (90)। गुणी व्यक्ति जहाँ भी रहता है, महत्वपूर्ण बन जाता है (94)। यह सच है क जो किसी गुणी व्या की इच्छा का अनुसरण करता है उसके मर्म है का रक्षण करता है, उसके गुणों को प्रकाशित करता है, वह मनुष्यों का ही नहीं, किन्तु देवताओं का भी प्रिय हो जाता है (38) । यह समाज एवं व्यक्ति का कर्तव्य है कि वे ऐसे व्यक्ति की जो मूल्यों को जोवन में साकार किए हुए है, पूर्ण पावर से रक्षा करें, क्योंकि चन्द्र बिंब के अस्त होने पर तारों द्वारा प्रकाश नहीं किया जा सकेगा (72,73) वास्तव में देखा जाय तो समाज की शोभा गुणी व्यक्ति से ही होती है, जैसे तालाब की शोभा हंस से.होती है (69) गुणी व्यक्ति सभ्य समाज में सुखी होता है तथा सभ्य समाज भी गुणी व्यक्ति के बिना शोभा नहीं पाता है । जैसे मानसरोवर के बिना राजहँसों के लिए सुख नहीं होता है वैसे ही मानवसरोवर भी उनके बिना नहीं शोभता है, (70)। इसमें सन्देह नहीं है कि मूल्यों-सहित और मूल्यों-रहित व्यक्ति में बहुत भेद होता है, जैसे हँस और बतक में, हँस और कौए में (66,67,68)। किसी व्यक्ति की मूल्यों में निष्ठा का ज्ञान उचित अवसर पर ही लगता है और वह उचित स्थानों पर ही सामने आता है, जैसे हाथी की महिमा राजा के आंगन में स्थित होने पर ही - iv ] [. वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामने आती है, किन्तु विद्य पर्वत पर वह प्रकट नहीं होती है (81) मूल्यों सहित व्यक्ति दूसरों के थोड़े गुणों की भी प्रशंसा करता है । वह दूसरों के मामूली दोषों के पचड़े में नहीं पड़ता है ( 95,34 ) । यह महापुरुषों की असफलताओं को देख कर भी उनके प्रति अपनी निष्ठा नहीं खोता है । वह यह समझता है कि महान व्यक्तियों का चढ़ना और गिरना होता ही रहता है । वह प्रकृति को देख कर सोचता है कि चन्द्रमा का क्षय होता है, किन्तु तारों का नहीं, चन्द्रमा की ही वृद्धि होती है किन्तु तारों की नहीं होती है । इसी तरह महान् व्यक्तियों का ही चढ़ना और गिरना होता है परन्तु सामान्य व्यक्ति हमेशा गिरे हुए ही होते हैं ( 74 ) । यह आश्चर्य है कि मूल्यों-रहित व्यक्ति (दुष्ट) केवल दोषों के कारण ही गर्व करते रहते हैं और बिना किसी कारण ही दूसरों से वैर करने लगते हैं ( 18,19 ) । इस जगत में यह देखा गया है कि जो गुणी हैं, मूल्यों सहित हैं, निर्धनता से ग्रसित होते हैं ( 60 ) । अतः कवि ने बहरे और अन्धे व्यक्तियों को धन्य कहा है क्योंकि वे ही ऐसे व्यक्ति हैं जो दुष्ट के वचन को नहीं सुनते हैं और दुष्ट के वैभव को नहीं देखते हैं ( 22 ) । यह भी पाया गया है कि मूल्यों-रहित व्यक्ति धन प्राप्त करने के पश्चात् कृपण हो जाते हैं । उनके धन का कोई उपयोग नहीं होता है । वे इस बात को नहीं सोच पाते कि लक्ष्मी एक न एक दिन उनको छोड़ जायगी । कृपणों के भंडार उनके मरने पर ही प्रकट होते हैं । वे संभवतया धन को भूमितल में इस भ्रम में गाड़ते हैं कि मरने पर उन्हें धन मागे भी मिल जायगा। उनके रुपये-पैसे न स्वयं के और न समाज के कोई काम के होते हैं ( 75-79) । यह अनुभव किया गया है कि मूल्यों-रहित व्यक्ति (दुर्जन) मूल्यों- सहित व्यक्तियों (सज्जनों) की निंदा में, उन पर दोषारोपण करने में लगे हुए होते हैं, तो भी मूल्यों सहित व्यक्तियों की कोई हानि नहीं होती है, जीवन-मूल्य ] For Personal & Private Use Only [ v Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बल्कि वे तो और भी अधिक निर्मल हो जाते हैं, जैसे क्षार के द्वारा मलिन किया जाता हुआ दर्पण और भी अधिक निर्मल हो जाता है (6)। इसमें सन्देह नहीं किया जाना चाहिए कि मूल्यों-रहित व्यक्तियों के कारण ग्राम और नगर, जहाँ ऐसे व्यक्ति होते हैं, बर्बाद हो जाते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे कुपुत्रों के कारण श्रेष्ठ कुल नष्ट हो जाते हैं और कुमंत्रियों के कारण समृद्ध नराधिपति नाश को प्राप्त होते हैं (40)। इसलिए कवि ने ठीक ही कहा है कि मूल्यों के समान कोई निधि नहीं हो सकती है (39)। मूल्यों-सहित और मूल्यों-रहित व्यक्ति की सामान्य चर्चा के पश्चात् अब हम उन विशिष्ट मूल्यों की चर्चा करना चाहते हैं जिन्हें वज्जालग्ग के रचयिता जयवल्लभ ने महत्व दिया है। प्राकृत के महत्व में प्रास्था : प्राकृत के महत्व को समझने के कारण प्राकृत काव्य को नमस्कार किया गया है (5)। इतिहास हमें बताता है कि वैदिक काल से ही प्राकृत जनता की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित रही है। अतः प्राकृत की प्रतिष्ठा जनता की प्रतिष्ठा है। प्राकृत के प्रति प्रेम होने से जनता के प्रति प्रेम स्वयमेव ही उत्पन्न हो जाता है। यह सर्व विदित है कि सामाजिक जीवन के विभिन्न आयामों में जनता ही सर्वोपरि होती है। जनता में आस्था ही सर्वोपरि सामाजिक मूल्य कहा जा सकता है। इसी आस्था से ही अन्य सभी सामाजिक मूल्य व्यक्ति के जीवन में धीरे-धीरे प्रविष्ट हो जाते हैं। जैसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से सम्यक् चारित्र सहज हो जाता है, वैसे ही जनता में आस्था उत्पन्न होने से जीवन-मूल्यों का ग्रहण सरल हो जाता है। प्राकृत भाषा के प्रति प्रेम जनता में आस्था उत्पन्न करने का एक सबल माध्यम है। इसलिए कहा गया है कि प्राकृत काव्य के लिए नमस्कार, जिनके द्वारा प्राकृत [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्य रचा गया है उनके लिए नमस्कार तथा जो भी लोग उसको पढ़ते हैं, उनके लिए भी नमस्कार (5)। जनताभिमुखी होने के कारण प्राकृत काव्य एक ऐसा रस उत्पन्न करता है जिससे हमारा मन कभी भरता नहीं है (4)। और उसकी गाथाओं को पढ़ने-सुनने से प्रत्येक व्यक्ति का चित्त प्रसन्नता का अनुभव करता है (3)। परोपकार : जनता में आस्था उत्पन्न होने से व्यक्ति में जो मूल्य-वृत्ति सबसे पहिले उत्पन्न होती है, वह है, पर-उपकार वृत्ति । मूल्यों-सहित व्यक्ति लोक का हित करते हैं (17)। वे असहाय जनों का उद्धार करने में तत्पर रहते हैं (14)। उनके पास यदि सुयोग से सम्पत्ति होती है तो भी वे उसका उपयोग व्याकुल जनों के उद्धार के लिए ही करते हैं (55)। इस तरह से मूल्यों-सहित व्यक्ति सदैव दूसरों का उपकार करता है (12)। कभी भी वह उनके अपकार की इच्छा नहीं करता है (12)। उसके जीवन में परोपकार वृत्ति इतनी सघन हो जाती है कि यदि कोई उसके लिए अप्रिय कार्य भी करता है, तो भी वह समय पड़ने पर उसका उपकार ही करता है (10) । धीरे-धीरे वह एक ऐसा व्यक्ति बन जाता है जिसको देखने से ही लोगों के दुख दूर हो जाते हैं (8) । अतः जिसकी मति उपकार में होती है उसके द्वारा ही पृथ्वी अलंकृत होती है (15) । जो लोग दूसरों का उपकार नहीं करते हैं उनसे कुछ भी लाभ नहीं होता है (90)। स्नेह और मित्रता: जो व्यक्ति मूल्यों का अनुरागी होता है उसके हृदय में गुणियों के प्रति स्नेह का उदय हो जाता है। जब व्यक्ति के हृदय में किसी व्यक्ति, समाज, देश, आदर्श आदि के लिए स्नेह पैदा हो जाता है तो [ viil जीवन-मूल्य ] For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके लिए इस जगत में कुछ भी कठिन नहीं होता है (27)। ऐसा व्यक्ति समय पड़ने पर उनके लिए समुद्र भी पार कर जाता है, प्रज्वलित अग्नि में भी प्रवेश कर जाता है, तथा जीवन का बलिदान करने को भी तत्पर रहता है (27)। प्रकृति में ऐसा स्नेह चन्द्रमा और उसके आकाश के द्वारा तथा सागर और चन्द्रमा के द्वारा व्यक्त किया गया है (27-29)। जिस गुणी व्यक्ति को हम स्नेह करते हैं उसको देखने से बहुत ही संतोष प्राप्त होता है (32) । और वह यदि दूर भी चला जाता है, तो भी पास ही अनुभव होता है (30)। इस भौतिक दूरी से स्नेह चलायमान नहीं होता है (36)। वास्तव में यह स्नेह ही मित्रता में परिणत हो जाता है। यह मित्रता पत्थर में की गई रेखा की तरह तथा सूर्य और दिन की आपस में मित्रता की तरह दृढ़ होती है (13,23,24)। इसी दृढ़ता के फलस्वरूप किसी भी स्थान पर किसी भी समय में विपत्ति पड़ने पर भीत पर चित्रित पुतले की तरह मित्र विमुख नहीं होता है (25)। मृदु वचन, शुद्ध संकल्प तथा सद्-कर्म : मूल्यों को जीवन में साकार करने वाले व्यक्ति की वाणी दूसरों को सुख प्रदान करने में सक्षम होती है (8)। ऐसा व्यक्ति नाना संदर्भो में प्रिय वचन ही बोलता है (9) । वह कभी कठोर वचन नहीं बोलता है, यदि उससे कोई कठोर बोलता है, तो भी वह हँसकर मृदु वचनों का ही उसके लिए प्रयोग करता है (11)। इस तरह मृदुता उसके जीवन में साकार हो जाती है । वाणी में मृदुता के साथ-साथ उसके जीवन में शुद्ध संकल्पों का उदय होता है । वह अपने संकल्पों का लोक में ढिंडोरा नहीं पीटता है, बल्कि संकल्पों के सद् परिणाम उत्पन्न होने पर ही लोक उसको जान पाता है (54)। शुद्ध संकल्प के कारण ही वह कार्य को फुर्ती से करता है, प्रारंभ किये गये कार्य को वह किसी viii ] [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरह भी शिथिल नहीं करता है, (43) यह संकल्प शक्ति का ही प्रभाव प्रतीत होता है कि प्रज्ञावान का मन जीवन की अन्तिम दशाओं में भी ऊँचा ही रहता है, जैसे अस्त होते हुए सूर्य की किरणें ऊपर की ओर ही प्रकट होती हैं ( 47 ) । संकल्पवान व्यक्ति उच्च कर्म में अपने आपको लगा देता है, इसलिए उसके प्रयत्न दीर्घ काल तक निष्फल नहीं रह सकते हैं (56)। वह सदैव शक्ति के अनुरूप ही कार्य करता है । अतः वह पराश्रित होने से बच जाता है ( 42 ) । वह इस बात को भली-भाँति समझता है कि मनुष्य के द्वारा किया हुआ कर्म कभी उससे अलग नहीं होता है । अतः वह सदैव सद्कर्मो में ही अपने को लगाता है, असद्कर्मों से अपने को दूर ही रखता है। ( 80 ) । उसको मनुष्य के निष्ठुर कार्यों पर आश्चर्य होता है (79) । वह उचित - अनुचित का विचार करके ही कार्य करता है ( 41 ) । साहस और धैर्य : मूल्यों का प्रेमी व्यक्ति साहसी होता है । वह किसी भी सद्कार्य को करने के लिए इतने साहस का परिचय देता है कि देव भी उसके कार्यों को देखकर प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकता है । उसके लिए कठिन से कठिन कार्य भी सरल हो जाता है ( 50-51 ) । साहसी व्यक्ति धीर होता है । यदि किसी सद्-कार्य का इच्छित परिणाम उत्पन्न होने में बाधाएँ उपस्थित हो जाती हैं, तो धीर व्यक्ति का उत्साह दुगना हो जाता है, उसमें निराशा नहीं आती है ( 52 ) | कवि ठीक ही कहा है कि तब तक ही मेरु पर्वत ऊँचा होता है, तब तक ही समुद्र दुर्लध्य होते हैं, तब तक ही कार्यों में गति कठिन होती है, जब तक धीर व्यक्ति उनको स्वीकार नहीं करते हैं (48) । तब तक ही प्रकाश विस्तीर्ण लगता है, तब तक ही समुद्र प्रति गहरे मालूम होते हैं, तब तक ही मुख्य पहाड़ महान दिखाई देते हैं, जब तक वीरों जीवन-मूल्य ] For Personal & Private Use Only 13 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से उनकी तुलना नहीं की जाती है (49)। धीर व्यक्ति अनेक सद्कार्यों में लगे हुए होने पर भी अनासक्त भाव को जीवन का आभूषण मानते हैं। वैभव के क्षय होने पर भी उनमें उदारता बनी रहती है, मरण काल में धैर्य बना रहता है, विपत्ति में भी आत्म-सम्मान जागृत रहता है (57)। उनके कार्यों का यदि समाज में मूल्य-हीन व्यक्ति विरोध करते हैं, तो वे डटकर उनका मुकाबला करते हैं (82)। आत्म सम्मान की रक्षा: मूल्यानुरागी व्यक्ति आत्म-सम्मान रूपी लाल की सदैव रक्षा करते हैं। उनमें याचना भाव कभी उत्पन्न नहीं होता है (44)। वे बड़ी से बड़ी विपत्ति पड़ने पर भी सद् प्रयत्नों में स्थिर रहते हैं तथा आत्मसम्मान को नहीं खोते हैं (46)। वे वस्तुओं को सम्मान से ही प्राप्त करना चाहते हैं। उनका आत्म-सम्मान स्वप्न में भी क्षीण नहीं होता है (46,65)। विनय, कृतज्ञता और गंभीरता : मूल्य-युक्त व्यक्ति विनयवान होता है। जीवन में यदि उसको सफलता प्राप्त होती है, तो वह नम्र हो जाता है, और यदि असफलता, तो वह उत्साह से भर जाता है, जैसे महावृक्षों के शिखर फलों की प्राप्ति होने पर झुके हुए होते हैं तथा फलों के नाश होने पर ऊँचे हो जाते हैं (53)। वह रत्नाकर के समान रत्नों (गुणों) से भरा हुआ होने पर भी कभी गर्व नहीं करता है (98)। विनय से कृतज्ञता पैदा होती है । कृतज्ञता एक प्रकार की विनय ही है। मूल्यानुरागी व्यक्ति किसी के द्वारा किए गए उपकार को कभी नहीं भूलता है (15) । दुष्ट व्यक्ति अकृतज्ञ होते हैं। कवि कहता है कि जिन (विद्य पर्वतशृखलाओं) के द्वारा अनार्य ऊंचे (प्रतिष्ठित) किए गए हैं, जिनके [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसाद से (उनका) प्रताप बाहर फैलाया गया है, (आश्चर्य) (वे अनार्य) ही विद्य पर्वत को जलाते हैं । खलों का मार्ग ही अनोखा है (20)। मूल्यों-सहित व्यक्ति समुद्र के समान गंभीर होते हैं। कवि का कथन है कि लक्ष्मी के बिना भी रत्नाकर की गंभीरता पहिले जैसी ही बनी हुई है (96)। यद्यपि समुद्र वाडवानल(भीतरी आग)के द्वारा ग्रसित किया गया, सकल सुर-असुरों द्वारा मथा गया और लक्ष्मी के द्वारा त्यागा गया फिर भी उसकी गम्भीरता को देखो(97)। बाहर निकले हुए रत्नों के कारण भी समुद्र की तुच्छता नहीं होती है(99)। ज्ञान, अभय और उदारता : मूल्यों को जीवन में महत्व देने वाला व्यक्ति ज्ञान के ग्रहण को राज्य से भी श्रेष्ठ मानता है (35)। उसके लिए ज्ञान के समान कोई बंधु नहीं है (39) । वह सदैव शरण में आये व्यक्ति का भला करता है (14)। और वह वैभव के क्षय होने पर भी उदारता को नहीं छोड़ता है (57)। कवि कहता है कि हे राजा ! अब हम जाते हैं, क्योंकि हे प्रभो ! तुम्हारी उदारता कभी नहीं देखी गई (63)। वचन-पालन और कुसंगति-त्याग : ___ मूल्यों-सहित व्यक्ति वचन दिए हुए कार्य को कभी शिथिल नहीं करते हैं (16) । वचन दी गई बात के पालन में वे सदैव तत्पर रहते हैं (26)। वे उन व्यक्तियों से घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं रखते हैं जो मूल्यों रहित हैं । कवि ने ठीक ही कहा है कि जिस प्रकार शुष्क घास से मिश्रित ताजे वृक्ष भी दावानल के द्वारा जला दिये जाते हैं, उसी प्रकार दुर्जन (मूल्यों रहित व्यक्ति) का साथ प्राप्त होने पर सज्जन (मूल्यों सहित व्यक्ति) भी सुख नहीं पाता है (21)। बहुत बड़े वृक्षों के बीच में चन्दन की शाखा सर्प दोष के कारण काट दी जाती जीवन-मूल्य ] [ xi For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, जैसे अपराध रहित भद्र पुरुष दुष्ट संग के कारण काट दिया जाता है (93)। इसलिए मूल्यों सहित व्यक्ति कुसंगति से बचते हैं। मूल्यों का प्रेमी व्यक्ति क्षमावान होता है। यदि कोई उसके प्रति अपराध कर देता है, तो वह उसे क्षमा कर देता है (14)। वह कभी उस पर क्रोध नहीं करता है (12)। वह क्रोध को अपना दुश्मन मानता है (38) । और क्षमा को तप से श्रेष्ठ समझता है (35)। यदि उसे कभी क्रोध आता भी है, तो वह (बादलों की) बिजली की तरह अस्थिर होता है (13)। ___ जीवन-मूल्यों के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वज्जालग्ग में सामाजिक मूल्यों का सुन्दर संकलन हुअा है। वज्जालग्ग की इसी विशेषता से प्रभावित होकर यह चयन पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है । गाथाओं का हिन्दी अनुवाद मूलानुगामी बनाने का प्रयास किया गया है । यह दृष्टि रही है कि अनुवाद पढ़ने से ही शब्दों की विभक्तियां एवं उनके अर्थ समझ में आ जायँ । अनुवाद को प्रवाहमय बनाने की भी इच्छा रही है। कहाँ तक सफलता मिली है, इसको तो पाठक ही बता सकेंगे । अनुवाद के अतिरिक्त गाथाओं का व्याकरणिक विश्लेषण भी प्रस्तुत किया गया है। इस विश्लेषण में जिन संकेतों का प्रयोग किया गया है, उनको संकेत सूची में देखकर समझा जा सकता है । यह आशा की जाती है कि व्याकरणिक विश्लेषण से प्राकृत को व्यवस्थित रूप से सीखने में सहायता मिलेगी तथा व्याकरण के विभिन्न नियम सहज में ही सीखे जा सकेंगे। यह सर्व विदित है कि किसी भी भाषा को सीखने के लिए व्याकरण का ज्ञान अत्यावश्यक है। प्रस्तुत गाथाओं एवं उनके xii ] [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणिक विश्लेषरण से व्याकरण के साथ-साथ शब्दों के प्रयोग सीखने में मदद मिलेगी । शब्दों की व्याकरण और उनका अर्थपूर्ण प्रयोग दोनों ही भाषा सीखने के प्राधार होते हैं । अनुवाद एवं व्याकरणिक विश्लेषण जैसा भी बन पाया है पाठकों के समक्ष है । पाठकों के सुझाव मेरे बहुत ही काम के होंगे । प्राभार : वज्जालग्ग में जीवन-मूल्य के लिए प्रो. एम. वी. पटवर्धन द्वारा सम्पादित वज्जालग्ग के संस्करण का उपयोग किया गया है । इसके लिए प्रो. पटवर्धन के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ । 'वज्जालग्ग' का यह संस्कररण प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद से सन् 1969 में प्रकाशित हुआ है । दीन-दुखियों की सेवा में तत्पर श्री देवेन्द्रराजजी मेहता (सचिव, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर) ने इस पुस्तक का प्राक्कथन लिखने की स्वीकृति प्रदान की, इसके लिए मैं उनका हृदय से कृतज्ञ हूँ । मेरे विद्यार्थी डा. श्यामराव व्यास, सहायक प्रोफेसर, दर्शनविभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर का आभारी हूँ, जिन्होंने इस पुस्तक के अनुवाद एवं इसकी प्रस्तावना को पढ़कर उपयोगी सुझाव दिए । मेरी धर्मपत्नी श्रीमती कमलादेवी सोगारणी ने इस पुस्तक की गाथाओं का मूल ग्रंथ से सहर्ष मिलान किया है । अतः मैं उनका आभार प्रकट करता हूँ । इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए प्राकृत भारती अकादमी, जीवन-मूल्य ] For Personal & Private Use Only [. xiii Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर के सचिव श्री देवेन्द्रराजजी मेहता तथा संयुक्त सचिव एवं निदेशक महोपाध्याय श्री विनयसागरजी ने जो व्यवस्था की है, उसके लिए उनका हृदय से आभार प्रकट करता हूँ। . . प्रोफेसर, कमलचन्द सोगाणी दर्शन विभाग मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर (राजस्थान) 11-10-87 xiv ] [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्जालग्ग में जीवन-मूल्य For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्जालग्ग में जीवन-मूल्य 1. दुक्ख कोरइ कन्वं कव्वम्मि कए पउंजरणा दुक्खं । संते पउंजमाणे सोयारा दुल्लहा हुति ॥ 2. गाहा रुग्रह प्रणाहा सीसे काऊरण दो वि हत्यायो । ___ सुकई हि दुक्खरइया सुहेण मुक्खो विरणासेइ ॥ 3. गाहाहि को न होरइ पियाण मित्ताण को न संभरइ । दूमिज्जइ को न वि दूमिएरण सुयणेग रयरणेण ॥ पाइयकवम्मि रसो जो जायइ तह य छयभणिएहि । उययस्स य वासियसोयलस्स तित्ति न वच्चामो ॥ 5. पाइयकम्बस्स नमो पाइयकव्वं च निम्मियं जेरण। . ताहं चिय पणमामो पढिऊण य जे वि जाणंति ॥ 6. सुयणो सुद्ध सहावो मइलिज्जतो वि दुज्जरजरणेण । छारेण दप्पणो विय प्रहिययरं निम्मलो होइ ॥ 2 ] [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्जालग्ग में जीवन-मूल्य ___ 1. · काव्य बड़ी कठिनाई से रचा जाता है। काव्य के रच लेने पर (उसका) पाठ बड़ी कठिनाई से (किया जाता है)। पाठ करने वाले (व्यक्ति के) होने पर श्रोता दुर्लभ होते हैं। 2. अच्छे कवियों द्वारा बड़ी कठिनाई से रचित अनाथ गाथा दोनों ही हाथों को सिर पर रख कर रोती है, (जब) मूर्ख (पाठी) (गाथा-पाठ को) लापरवाही से बिगाड़ देता है । 3. गाथा के द्वारा कौन प्रसन्न नहीं किया जाता है ? प्रिय मित्रों को कौन स्मरण नहीं करता है ? तथा श्रेष्ठ परोपकारी के पीड़ित होने पर कौन (व्यक्ति) पीड़ित नहीं किया जाता है ? प्राकृत काव्य से जो रस उत्पन्न होता है (उससे) हम ऊब को प्राप्त नहीं होते हैं, उसी तरह ही (जैसे) निपुण (व्यक्ति) के द्वारा बोले गए (वचनों) से तथा (अपने द्वारा पिए गए) 'सुगन्धित शीतल जल से (भी) हम ऊब को प्राप्त नहीं होते हैं । 5. प्राकृत काव्य को नमस्कार तथा जिनके द्वारा प्राकृत काव्य रच गया है (उनको) (नमस्कार) तथा जो भी (लोग) (उसको) पढ़कर जानते हैं उनको भी हम प्रणाम करते हैं। दुर्जनः मनुष्य के द्वारा मलिन किया जाते हुए भी उज्ज्वल स्वभावी सज्जन और भी अधिक निर्मल हो जाता है जैसे क्षार के द्वारा (मलिन किया जाता हुआ) दर्पण (और भी अधिक निर्मल हो जाता है)। जीवन-मूल्य ] [ 3 For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. सुयगो न कुप्पड़ विजय ग्रह कुप्पड़ मंगुलं न चितेह | ग्रह चितेइ न जंप ग्रह जंपइ लज्जिरो होइ ॥ 8. विट्ठा हरंति दुक्खं जंपंता देति सयल सोक्लाइं । एयं विहिरणा सुकयं सुयरणा जं निम्मिया भुवरणे ॥ 9. न हसंति परं न युवंति प्रप्पयं पियसयाइ जंपति । एसो सुयणसहावो नमो नमो ताण पुरिसागं ॥ 10. प्रकए वि कए वि पिए पियं कुणंता जयम्मि दीसंति । कविप्पिए विहु पिथं कुणंति ते बुल्लहा सुयरणा ॥ 11. फरसं न भरगसि भणिम्रो वि हससि हसिऊण जंपसि पियाई । सज्जण तुम्भ सहावो न याणिमो कस्स सारिच्छो । 4 ] For Personal & Private Use Only [ वज्जालग्ग में Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. सज्जन व्यक्ति क्रोध नहीं करता है, यदि (वह) क्रोध भी करता है, (तो) अनिष्ट नहीं सोचता है, यदि (वह अनिष्ट) सोचता है, (तो) (अनिष्ट) नहीं बोलता है, यदि (वह अनिष्ट) बोलता है, (तो) लज्जा-युक्त होता है। 8. (सच है कि) मिले हुए (सज्जन व्यक्ति) (हमारे) दुःख को हरते हैं, बोलते हुए (वे) (हमको) सभी सुख देते हैं, विधि द्वारा यह शुभ (कार्य) किया गया है कि जगत में सज्जन व्यक्ति (उसके द्वारा) बनाए गए हैं। 9. (सज्जन पुरुष) दूसरे पर नहीं हँसते हैं, (वे) निज की प्रशंसा नहीं करते हैं, (वे) सैंकड़ों प्रिय (बातें) बोलते हैं, यह सज्जन का स्वभाव है। उन (सज्जन) पुरुषों को बार बार ननस्कार । 0. (दूसरे के द्वारा अपना) प्रिय (भला) किया जाने पर तथा (दूसरे के द्वारा अपना) प्रिय (भला) नहीं किया जाने पर भी जगत में (दूसरे का) प्रिय (भला) करते हुए (लोग) देखे जाते हैं । किन्तु (दूसरे के द्वारा अपना) अप्रिय (बुरा) किया जाने पर भी (जो) (दूसरे का) प्रिय (भला) करते हैं, वे सज्जन दुर्लभ हैं। 1. हे सज्जन ! (तुम) कठोर नहीं बोलते हो, (यदि दूसरे के द्वारा कठोर) बोला गया (है), (तो) भी (तुम) हँसते हो, हँसकर प्रिय (वचनों को) बोलते हो। तुम्हारा स्वभाव किसके समान है ? (हम) नहीं जानते हैं। वन-मूल्य ] [5 For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. नेच्छसि परावयारं परोवयारं च नियमावहसि । प्रवराहेहि न कुप्पसि सुयण नमो तुह सहावस्स ॥ 13. दोहि चिय पज्जतं बहुएहि वि कि गुणेहि सुयणस्स । विज्जुप्फुरियं रोसो मित्ती पाहाणरह व्व ॥ 14. वीणं प्रभुद्धरिडं पत्ते सरणागए पियं काउं । प्रवरद्ध सु विखमिउं सुयलो विचय नवरि जाणे ॥ 15. बे पुरिसा धरइ धरा ग्रहवा दोहिं पि धारिया धरणी । उवयारे जस्स मई उदयरियं जो न पम्हुसइ ॥ 16. सेला चलंति पलए मज्जायं सायरा वि मेल्लंति । सुरणा तहपि काले परिवन्नं नेय सिलिंति ॥ 17. चंब रगतर व्व सुयना फलरहिया जइ वि निम्मिया विहिणा । तह वि कुणंति परत्थं निययसरीरेण लोयस्स ॥ 6] For Personal & Private Use Only [ वज्जालग्ग में Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. हे सज्जन ! (तुम) दूसरे के अपकार की इच्छा नहीं करते हो तथा (तुम) सदा दूसरे का उपकार करते हो, ( तुम्हारे प्रति किए गए ) अपराधों के कारण (तुम) (किसी पर भी ) क्रोध नहीं करते हो, (अतः ) तुम्हारे स्वभाव के लिए नमस्कार । 13. 14. सज्जन व्यक्ति के बहुत गुरणों से भी क्या ? ( उसके ) दो गुरगों से ही ( हमारी ) तृप्ति है - ( बादलों की ) बिजली की तरह अस्थिर क्रोध (तथा) पत्थर की रेखा की तरह मित्रता । 16. दीन का उद्धार करना, शरण में आए हुए ( व्यक्ति के ) प्राप्त होने पर ( उसका ) प्रिय (भला) करना, ( तथा अपने प्रति किए गए ) अपराधों को भी क्षमा करना केवल सज्जन ही जानता है । 15. पृथ्वी दो पुरुषों को धारण करती है अथवा ( यह कहा जाय कि) पृथ्वी दो के द्वारा ही धारी गई है । ( प्रथम ) उपकार में जिसकी मति है, (द्वितीय) जो ( दूसरे के द्वारा) किए गए उपकार को नहीं भूलता है । प्रलय में पर्वत नष्ट होते हैं (तथा) सागर भी मर्यादा छोड़ देते हैं, ( किन्तु ) उस समय में भी सज्जन कभी दिए हुए वचन को शिथिल नहीं करते हैं । - 17. यद्यपि चन्दन - वृक्ष की तरह सज्जन विधि के द्वारा फल रहित ( पुरस्कार - रहित ) बनाए गए हैं, तो भी (वे) निज शरीर से लोक का हित करते हैं । जीवन-मूल्य ] For Personal & Private Use Only [ 7 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. गुणिणो गुणेहि विहवेहि विहविरणो होंतु गम्विया नाम । दोसेहि नवरि गव्यो खलाण मग्गो च्चिय अउव्यो । 19. संतं न देंति वारेति देतयं विनयं पि हारंति । परिणमित्तवइरियाणं खलाण मग्गो च्चिय अउग्यो । 20. जेहि चिय उम्भविया जाण पसाएण निग्गयपयावा । समरा म्हंति विझं खलाण मग्गो चिचय प्रउव्यो । 21. सरसा वि दुमा दावाणलेण उज्झति सुक्खसंवलिया। दुज्जणसंगे पत्ते सुयरणो वि सुहं न पावेइ ॥ धन्ना बहिरंपलिया दो च्चिय जीवंति माणुसे लोए । न सुगंति पिसुणवयणं खलस्स रिवी न पेच्छंति ॥ 23. एक्कं चिय सलहिज्जइ विणेसवियहांण नवरि निव्वहणं । माजम्म एक्कमेक्केहि जेहि विरहो च्चिय न विट्ठो। 24. परिवन्नं विणयरवासराण दोण्हं प्रखंडियं सुहइ । सूरो न विरणेण विरणा दिगो विन हु सूरविरहम्मि ॥ 8 ] [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only * Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. गुणों से गुणी गर्वित हों, सम्पत्ति से सम्पत्तिशाली गर्वित (हों), (यह) संभव (है)। (किन्तु) (खल) केवल दोषों के कारण गर्व (करते हैं) । खलों का मार्ग ही अनोखा है। 19. (खल) (अपने पास) होती हुई (वस्तु) को नहीं देते हैं, देते हुए (दूसरों) को रोकते हैं, दी गई (वस्तु) को भी छीन लेते हैं। बिना किसी कारण वैर करने वाले खलों का मार्ग ही अनोखा है। 20. जिन (विन्ध्य-पर्वत शृंखलाओं) के द्वारा अनार्य ऊँचे (प्रति ष्ठित) किए गए हैं, जिनके प्रसाद से (उनका) प्रताप बाहर. फैलाया गया है, (आश्चर्य है) (वे अनार्य) ही विन्ध्य-पर्वत को जलाते हैं । खलों का मार्ग ही अनोखा है। 21. (जिस प्रकार) शुष्क (घास) से मिश्रित ताजे वृक्ष भी दावानल ... के द्वारा जला दिए जाते हैं, (उसी प्रकार) दुर्जन का साथ प्राप्त होने पर सज्जन भी सुख नहीं पाता है । 22. (मनुष्यों से) मिले हुए बहरे और अन्धे धन्य हैं, (वे) ही दो (व्यक्ति) (वास्तव में) मनुष्य लोक में जीते हैं, (क्योंकि) (वे) दुष्ट के वचन को नहीं सुनते हैं (और) दुष्ट के वैभवों को नहीं देखते हैं। 23. केवल एक ही सूर्य और दिन (की मित्रता) का निर्वाह प्रशंसित किया जाता है, जिनमें से प्रत्येक (किसी) के द्वारा आजन्म विरह ही नहीं देखा गया। 24. सूर्य और दिन दोनों की (आपस में) की हुई अखंडित (मित्रता) शोभती है। दिन के बिना सूर्य नहीं (होता है) (तथा.) दिन भी निश्चय ही सूर्य के अभाव में नहीं (होता है)। जीवन-मूल्य ] [9 For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. तं मित्तं कायव्वं अं फिर वसणम्मि बेसकालम्मि । प्रालि हियभित्तिबाउल्लयं व न परंमुहं ठाइ ॥ 26. छिज्जउ सीसं ग्रह होउ बंघणं चयउ सव्वहा लच्छी । पडिवन्नपालणे सुपुरिसाण जं होइ तं होउ ॥ 27. कीरइ समुद्दतरणं पविसिज्जइ हुयवहम्मि पज्जलिए । श्रायामिज्जइ मरणं नस्थि दुलंघं सिरोहस्स || 28. एक्काइ नवरि नेहो पयासिनो तिहुयणम्मि जोन्हाए । जा भिज्जइ भी ससहरम्मि बढेइ बढ़ते ॥ 29. झिज्जइ झीणम्मि सया वड्ढइ वढतयम्मि सविसेसं । सायंरससीरण छज्जइ जयम्मि पडिवन्नरिगव्वहणं ॥ 30. पडिवन्नं जेण समं पुव्वणिनोएरण होइ जीवस्स । दूरट्ठियो न दूरे जह चंदो कुमुयसंडारणं ॥ 10 ] For Personal & Private Use Only [ वज्जालग्ग में Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. वह मित्र बनाए जाने योग्य होता है, जो निश्चय ही (किसी भी) स्थान पर (तथा) (किसी भी) समय में विपत्ति पड़ने पर भीत पर चित्रित पुतले की तरह विमुख नहीं रहता है । 26. वचन दी हुई (बात) के पालन में सज्जन पुरुषों का जो होता है, वह हो, (कोई बात नहीं) यदि शीश काट दिया जाए, (यदि) बंधन हो जाए (तथा) (यदि) पूर्णतः लक्ष्मी छोड़ दे। 27. स्नेह के लिए (इस जगत.में) (कुछ भी) अलंघनीय (कठिन) नहीं है : समुद्र भी पार किया जाता है, प्रज्वलित अग्नि में (भी) प्रवेश किया जाता है (तथा) मरण (भी) स्वीकार किया जाता है। 28. तीनों लोकों में केवल अकेले चन्द्र-प्रकाश के द्वारा स्नेह व्यक्त किया गया है, (क्योंकि) जो (वह) (प्रकाश) क्षीण चन्द्रमा में क्षीण होता है (तथा) बढ़ते हुए (चन्द्रमा में) बढ़ता है। ____ 29. — जगत में सागर और चन्द्रमा के (मध्य में) किया हुआ (स्नेह) निर्वाह शोभता है। (चन्द्रमा के) क्षीण होने पर सागर सदा क्षीण होता है (तथा) (चन्द्रमा के) बढ़ते हुए होने पर सागर · विशेष प्रकार से (सदा) बढ़ता है । 30. जैसे चन्द्रमा और (चन्द्र-विकासी) कमल-समूहों के (मध्य में) (किया हुआ) (स्नेह) (होता है), (वैसे ही) पूर्व संबन्ध से जीव .. का जिसके साथ किया हुआ (स्नेह) होता है, (वह जीव) दूर स्थित (भी) दूर नहीं (होता है)। . जीवन-मूल्य ] [ 11 For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. दूरदिव्या न दूरे सज्जणचित्ताण पुवमिलियारणं । गयणट्ठियो वि चंदो पासासइ कुमुयसंडाई॥ 32. एमेव कह वि कस्स वि केरण वि विद्रुण होइ परिमोसो। कमलायराण रहणा कि कज्जं जेरण वियसंति ॥ . 33. कत्तो उग्गमह रई कत्तो वियसंति पंकयषणाई। सुयरणारण जए नेहो न चलइ दूरट्ठियाणं पि॥ 34. संतेहि असंतेहि य परस्स किं जंपिएहि बोसेहिं । प्रत्थो जसो न लग्भइ सो वि अमित्तो कमो होइ॥ 35. सोलं वरं कुलानो दालिहं भग्वयं च रोगाम्रो । विज्जा रज्जाउ वरं खमा वरं सुठ्ठ वि तवामो॥ . 36. सोलं वरं कुलामो कुलेज कि होइ विगयसोलेरण । कमलाइ कद्दमे संभवंति न ह हुंति मलिणाई॥ 12 ] [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. पूर्व में ( आपस में) मिले हुए सज्जन चित्तों के लिए दूर स्थित ( रहना) भी दूर ( जैसा) नहीं ( होता है) । ( यह ज्ञातव्य है कि) गगन में स्थित भी चन्द्रमा कमल समूहों को आश्वासन देता है । 32. (यह ) इसी प्रकार ( है ) ( कि) किसी तरह किसी भी ( स्नेही) के लिए किसी भी (स्नेही) के द्वारा देख लिया जाने से परितोष होता है । (ठीक ही है) सूर्य से कमल - समूहों का ( स्नेह के अतिरिक्त और क्या प्रयोजन जिससे वे खिलते हैं ? · - 33. कहाँ से (तो) सूर्य उदय होता है ? और कहाँ कमलों के समूह खिलते हैं ? ( यह सच है कि ) जगत में दूर स्थित सज्जनों का स्नेह चलायमान नहीं होता है । 34. दूसरे (व्यक्ति) के विद्यमान तथा अविद्यमान कहे हुए दोषों से क्या लाभ ? ( इससे ) ( उसके द्वारा) अर्थ (और) यश कभी प्राप्त नहीं किया जाता है, (किन्तु ) ( इससे ) वह शत्रु बनाया गया होता है । 35. कुल से शील ( चारित्र) श्रेष्ठतर है; तथा रोग से निर्धनता ( अधिक) अच्छी है; राज्य से विद्या श्रेष्ठतर है तथा अच्छे तप से क्षमा श्रेष्ठतर है । 36. ( (उच्च) कुल से शील ( चारित्र) उत्तम होता है, विनष्ट शील ( चारित्र) के होने पर (उच्च) कुल के द्वारा क्या लाभ होता है ? कमल कीचड़ में पैदा होते हैं, किन्तु मलिन नहीं होते हैं । जीवन-मूल्य ] For Personal & Private Use Only [ 13 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37. जंजि खमेइ समत्थो घणवंतो जं न गव्वमुस्वहा । जं च सविज्जो नमिरो तिसु तेसु प्रलंकिया बहवो ॥ . 38. छंद जो अणुवट्टइ मम्मं रक्खइ गुणे पयासेइ । सो नवरि माणुसाणं देवाण वि वल्लहो होइ ॥ 39. लवरणसमो नत्थि रसो विनाणसमो य बंधवो नस्थि । धम्मसमो नस्थि निही कोहसमो वेरिनो नस्थि ॥ 40. कुप्पुत्तेहि कुलाइं गामणगराइ पिसुरणसोलेहि । नासंति कुमंतीहि नराहिवा सुट्ठ वि समिद्धा ॥ 41. मा होसु सुयग्गाही मा पत्तीय जं न दिलै पच्चक्खं । पच्चक्खे वि य विठे जुताजुत्तं वियारेह ॥ 42. अप्पारणं प्रमुणंता जे प्रारंभंति दुग्गमं कज्ज । परमुहपलोइयाणं ताणं कह होइ जयलच्छी ॥ 14 ] atral [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Fear perto Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37. (यदि सच यह है) कि समर्थ ही क्षमा करता है, और (यदि सच यह है) कि धनवान गर्व धारण नहीं करता है, और (यदि सच यह है) कि विद्यायुक्त नम्र होता है, (तो) उन तीनों के द्वारा पृथ्वी अलंकृत होती है । 38. जो (योग्य व्यक्ति की) इच्छा का अनुसरण करता है, (उसके मर्म का रक्षण करता है, (उसके) गुणों को प्रकाशित करता है, वह न केवल मनुष्यों का (किन्तु) देवताओं का भी प्रिय होता है। 39. लवण के समान रस नहीं है, ज्ञान के समान बंधु नहीं है, धर्म के समान निधि नहीं है और क्रोध के समान वैरी नहीं है । कुपुत्रों के कारण श्रेष्ठ कुल भी नष्ट हो जाते हैं, दुष्ट चरित्रों के कारण श्रेष्ठ ग्राम-नगर भी (नष्ट (बर्बाद) हो जाते हैं) तथा श्रेष्ठ व समृद्ध नराधिपति भी कुमंत्रियों के कारण (नष्ट (असफल) हो जाते हैं)। सुने हुए को ग्रहण करने वाले मत हो, जो प्रत्यक्ष न देखा गया हो (उस पर) विश्वास मत करो. , (तथा.) प्रत्यक्ष देख लिए जाने पर (भी) उचित और अनुचित का विचार करो। 42. अपनी (शक्ति) को न जानते हुए जो कठिन कार्य प्रारम्भ कर देते हैं, उन परमुख की ओर देखे (झुके) हुए (व्यक्तियों) के लिए अर्थात् उन पराश्रित व्यक्तियों के लिए जय-लक्ष्मी (सफलता) किस तरह (प्राप्त) होगी? जीवन-मूल्य ] [ 15 For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 43. सिग्घं आरह कज्जं पारद्ध मा कह पि सिढिलेसु । पारदसिढिलियाई कज्जाइ पुरषो न सिज्झति.॥ 44. झोणविहवो वि सुयणो सेवइ रणं न पत्थए अन्नं । . मरणे वि अइमहग्धं न विक्किणइ मारणमारिणक्कं ॥ 45. नमिऊण जं विढप्पइ खलचलणं तिहुयणं पि किं तेण । मारणेण जं विढप्पइ तणं पि तं निम्वुई कुरणइ ॥ 46. ते धन्ना ताण नमो ते गल्या माणिणो थिरारंभा । जे गरुयवसरणपडिपेल्लिया वि अन्नं न पत्थंति ॥ 47. तुगो च्चिय होइ मेणो मणसिणो अंतिमासु वि वसासु । अत्यंतस्स वि रइणो किरणा उद्धं चिय फुरंति ॥ 48. ता तुंगो मेरुगिरी मयरहरो ताव होइ वुत्तारो। ता विसमा कज्जगई जाव न धीरा पवज्जति ॥ 16 ] [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43. कार्य को फूर्ती से करो, प्रारंभ किए गए कार्य को किसी तरह भी शिथिल मत करो, (क्योंकि) प्रारंभ किए गए (तथा) फिर शिथिल किए गए कार्य सिद्ध नहीं होते हैं । 44. सज्जन (जिसका) वैभव नष्ट हुअा (है) अरण्य का ही सहारा लेता है। (अपनी पूर्ति के लिये) वह दूसरे से याचना नहीं करता है। (वह) अति-मूल्यवान आत्म-सम्मान रूपी लाल के मरण (काल) में भी नहीं बेचता है। 45. खल-चरण में झुककर जो त्रिभुवन भी उपार्जित किया जाता है उससे क्या लाभ है ? सम्मान से जो तृण भी उपार्जित किया जाता है, वह सुख उत्पन्न करता है। A जो बड़ी विपत्ति से अति पीड़ित भी दूसरे से याचना नहीं करते हैं, वे आत्म-सम्मानी (हैं) तथा स्थिर-प्रयत्न (प्रयत्नों में स्थिर) (है)। (अतः) वे धन्य हैं (और) महान (हैं), उनके लिए नमस्कार। 47. प्रज्ञावान का मन (जीवन की) अंतिम दशाओं में भी ऊँचा ही होता है। (ठीक ही है) अस्त होते हुए सूर्य की किरणें भी ऊपर की ओर ही प्रकट होती हैं। 48. तब तक (ही) मेरु-पर्वत ऊँचा होता है, तब तक (ही) समुद्र दुलंघ्य होता है, तब तक ही कार्यों में गति कठिन होती है, - जब तक धीर (उनको) स्वीकार नहीं करते हैं। जीवन-मूल्य 1 [ 17 For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49. ता वित्थिष्णं गयर ताव च्चिय जलहरा ग्रहगहीरा । ता गरुया कुलसेला जाव न धीरेहि तुल्लति ॥ 50. मेरू तिणं व सग्गो घरंगणं हत्यचित्तं गयरण्यलं । वाहलिया य समुद्दा साहसवतारण पुरिसारणं ॥ 51. तं कि पि साहसं साहसेण साहंति साहससहावा । जं भाविऊण दिव्यो परंमुहो घ्रुणइ नियसीसं ॥ 52. जह जह न समप्पड़ विहिवसेण विहडंत कज्जपरिणामो । तह तह घोराण मणे वडढइ बिउरणो समुच्छाहो ॥ 53. फलसंपत्तीइ समोरणयाइ तुंगाइ फलविपत्तीए । हिययाइ सुपुरिसाणं महातरूणं व सिहराई ॥ 54. हियए जाम्रो तत्थेव वढियो नेय पयडिग्रो लोए । ववसायपायवो सुपुरिसाण लक्खिज्जइ फलेहि ॥ 18 ] For Personal & Private Use Only [ वज्जालग्ग में Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49. तब तक (ही) आकाश विस्तीर्ण (लगता है), तब तक (ही) समुद्र अति गहरे (मालूम होते हैं), तब तक (ही) मुख्य पहाड़ महान (दिखाई देते हैं), जब तक धीरों से (उनकी) तुलना नहीं की जाती है। 50. साहसी पुरुषों के लिए मेरू जैसे कि तृण (है), स्वर्ग (जैसे कि) घर का आँगन (है), गगन-तल · (जैसे कि) हाथ से छुपा हुआ है (और) समुद्र जैसे कि क्षुद्र नदियाँ हैं। 51. साहस (जिनका) स्वभाव (है), (वे) साहस से कुछ भी उस साहस कार्य को सिद्ध करते हैं, जिस (साहस कार्य) को विचार कर देव (भी) उदासीन हो जाता है (तथा) निजशीश को (प्रशंसा में) हिलाता है। 52. जैसे-जैसे कार्य का (इच्छित) परिणाम विधि की अधीनता से बिगड़ता हुआ होने के कारण पूरा नहीं किया जाता, वैसे-वैसे धीरों के मन में दुगना, अचल उत्साह बढ़ता है । 53. सज्जन पुरुषों के हृदय महावृक्षों के शिखरों की तरह फलों की प्राप्ति होने पर बहुत झुके हुए (होते हैं) (तथा) फलों के नाश होने पर (वे) ऊँचे (हो जाते हैं)। 54. सज्जन पुरुषों का संकल्परूपी वृक्ष (उनके) मन में (ही) उत्पन्न हुआ है, (उनके द्वारा) वहाँ ही बढ़ाया गया है, लोक में (उनके द्वारा) कभी प्रकट नहीं किया गया है, (किन्तु वह) · फलों (परिणामों) द्वारा ही पहचाना जाता है। जीवन-मूल्य ] [ 19 For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55. ववसायफलं विहवो विहवस्स य विहलजणसमुहरणं । विहलखरणेण जसो जसेण भण किं न पज्जत्तं ॥ 56. पाढत्ता सप्पुरिसेहि तुंगवबसायदिन्नहियरहि । कज्जारंभा होहिंति निष्फला कह चिरं कालं ॥ 57. विहवक्खए वि दाणं माणं बसणे विधीरिमा मरणे । कज्जसए वि अमोहो पसाहरणं धीरपुरिसाणं ॥ 58. दारिद्दय तुझ गुणा गोविज्जंता वि धीरपुरिसेहि। पाहुणएसु छणेसु य वसरणेसु य पायडा हुंति ॥ 59. दारिदय तुझ नमो जस्स पसाएण एरिसी रिखी। पेच्छामि सयललोए ते मह लोया न पेच्छंति ॥ 60. जे जे गणिणो जे जे वि माणिणो जे बियड्ढसमारणा। दालिद्द रे वियक्खण ताण तुमं साणुरानो सि ॥ 61. दीसंति जोयसिद्धा अंजणसिद्धा वि के वि वीसति । दारिद्दजोयसिद्ध मं ते लोया न पेच्छंति ॥ 20 ] [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55. संकल्प का परिणाम संपत्ति है और संपत्ति का परिणाम व्याकुल जनों का उद्धार है, व्याकुलों के उद्धार से यश (प्राप्त होता है), (तुम) कहो, यश से क्या प्राप्त किया हुआ नहीं है ? 56. उच्च कर्म में स्थापित सज्जन आत्माओं द्वारा शुरू किए हुए कार्यों के लिए प्रयत्न दीर्घ काल तक कैसे निष्फल होंगे? 57. वैभव के क्षय होने पर भी उदारता, विपत्ति में भी आत्म सम्मान, मरण (काल) में भी धैर्य (तथा) सैकड़ों प्रयोजनों में भी अनासक्त भाव-धीर पुरुषों के (ये) भूषण हैं। 58. हे निर्धनता ! तुम्हारे गुण धीर पुरुषों के द्वारा छुपाए जाते हुए भी अतिथियों की उपस्थिति) में, उत्सवों पर और कष्टों के होने पर प्रकट हो जाते हैं। 59. हे निर्धनता ! तुम्हारे लिए नमस्कार, (क्योंकि) जिसके (तुम्हारे) प्रसाद से ऐसी ऋद्धि (मिली) (है) (कि) (मैं) सब लोगों को देखता हूँ, (पर) वे (सब) लोग मुझे नहीं देखते हैं। 60. हे निपुण निर्धनता ! जो जो गुणी हैं, जो जो आत्म-सम्मानी हैं, जिन्होंने विद्वानों में सम्मान (पाया है), तुम उनके लिए अनुराग सहित होती हो। 61. योग-सिद्ध देखे जाते हैं, कितने ही अंजण-सिद्ध भी देखे जाते हैं, (किन्तु) वे मनुष्य मुझ दारिद्र-योग-सिद्ध को नहीं .. देखते हैं। जीवन-मूल्य ] [ 21 For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62. संकुयइ संकुयंते वियसड़ वियसंतयम्मि सूरम्मि । रोरकुडु वं पंकयलीलं समुब्वहइ ॥ सिसिरे 63. प्रोलग्गिश्रो सि धम्मम्मि होज्ज एव्हि नरिद बच्चामो । श्रालिहियकु जरस्स व तुह पहु दाणं चिय न विट्ठ ॥ 64. भग्गे वि बले बलिए वि साहरणे सामिए निरुच्छाहे । नियभुयविक्कमसारा थक्कंति कुलग्गया सुहडा ॥ · 65. वियलइ धरणं न माणं भिज्जइ अंगं न भिज्जइ पयावो । रूवं चलइ न फुरणं सिविणे वि मरणंसिसस्थाणं ॥ 66. हंसो सि महासरमंडरणो सि धवलो सि धवल कि तुम्झ । खलवायसारण मज्झे ता हंसय कत्थ पडियो सि ॥ 67. हंसो मसारणमज्भे कानो जइ वसई पंकयधरणम्मि । तह वि हु हंसो हंसो काश्रो काम्रो च्चिय वरानो ॥ 22 ] For Personal & Private Use Only [ वज्जाल‍ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62. 63. सर्दी में गरीब कुटुम्ब कमल की लीला को धारण करता है । ( वह ) अस्त होते हुए सूर्य में सिकुड़ जाता है और उदय होते हुए (सूर्य में ) फैल जाता है । (तुम) धर्म में अनुलग्न हो, रहो । हे राजा ! अब हम जाते हैं, (क्योंकि) हे प्रभो ! तुम्हारी उदारता कभी नहीं देखी गई, जैसे चित्रित हाथी के मस्तक से टपकने वाला रस कभी नहीं देखा गया है । 64. युद्ध-शक्ति के खण्डित होने पर, सेना के घिरे हुए होने पर (और) स्वामी के उत्साह - रहित ( किये गए) होने पर उच्च कुलों में उत्पन्न योद्धा निज भुजाओं के पराक्रम बल से ( ही ) स्थिर रहते हैं । 65. दृढ संकल्प वाले दल (सुभटों) का ( यदि ) धन क्षीण होता है, (तो) स्वप्न में भी आत्म-सम्मान (क्षीण) नहीं (होता), शरीर ( यदि ) क्षीण होता है, ( तो स्वप्न में भी) प्रताप क्षीण नहीं होता, ( यदि) रूप नष्ट होता है, ( तो स्वप्न में भी) स्फूर्ति नष्ट नहीं होती । 67. 66. हे धवल ! तुम हंस हो, महासागर के आभूषण हो, तुम विशुद्ध हो, तो हे हंस ! तुम दुष्ट कौनों के मध्य में कैसे फँसे हुए हो ? तुम्हारा (यह ) क्या हुआ ? यदि हंस मसारण के मध्य में रहता है (और) कौआ कमलसमूह में रहता है, तो भी निश्चय ही हंस हंस है (और) बेचारा कौआ, कौआ ही ( है ) । जीवन-मूल्य ] For Personal & Private Use Only [ 23 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68. बेवि सपक्ला तह वे विषवलया के वि सरवरनिवासा। तह विहु हंसबयाणं जाणिज्जइ अंतरं गत्यं ॥ 69. एक्केण य पासपरिट्ठिएण हंसेण होइ जा सोहा तं सरवरो न पावइ बहुएहि वि ढिकसत्यहि ॥ 70. मारणससररहियारणं जह न सुहं होइ रायहंसाएं। तह तस्स वि तेहि विरणा तीरच्छंगा न सोहंति ॥ 71. वच्चिहिसि तुमं पाविहिसि सरवरं रायहंस, किं चोज्नं । माणससरसारिक्खं पुहवि भमंतो न पाविहिसि ॥ 72. सव्वायरेण रक्सह तं पुरिसं जत्थ जयसिरी वसइ । प्रत्यमिय चंदविवे ताराहि न कीरए जोहा॥ 73. जइ चंदो कि बहुतारएहि बहुएहि किं च तेन विणा । अस्स पयासो लोए षवलेइ महामहीवळें ॥ 74. चंदस्स खओ न. हु तारयाण रिद्धी वि तस्स नहु ताणं । गल्यारण चडणपडणं इयरा उरण निच्चपरिया य॥ - 24 ] [ वज्जालग्ग. में For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68. (यद्यपि) (हंस और बतक) दोनों ही पंख सहित (हैं), उसी तरह दोनों ही धवल (हैं), तथा दोनों ही तालाब में निवास (करने वाले हैं, तो भी निश्चय ही हंस और बतक का महान् भेद समझा (माना) जाता है। 69. तालाब के किनारे पर स्थित एक ही हंस के द्वारा जो शोभा होती है, उसे बहुत पक्षी-समूहों द्वारा भी तालाब प्राप्त नहीं करता है। 70. जैसे मानसरोवर के बिना राजहंसों के लिए सुख नहीं होता, वैसे ही उसके तट प्रदेश भी उनके बिना नहीं शोभते हैं । 71. हे राजहंस ! (यदि) तुम जानोगे, (तो) (निःसन्देह) उत्तम तालाब पाओगे, (इसमें) क्या आश्चर्य है ? (किन्तु) पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए (तुम कोई तालाब) मानसरोवर के समान नहीं पाओगे। 72. उस पुरुष की, जहाँ जय-लक्ष्मी रहती है, पूर्ण आदर से रक्षा करो। चन्द्र-बिंब के अस्त होने पर तारों द्वारा प्रकाश नहीं किया जाता है। ___73. लोक में जिसका प्रकाश विस्तृत भूमितल को सफेद करता है (चमकता है), यदि (वह) चन्द्रमा (है), (तो) असंख्य तारों से भी क्या (लाभ) ? और उनके बिना (भी) असंख्य तारों से क्या (लाभ) ? 74. चन्द्रमा का क्षय होता है, किन्तु तारों का नहीं। वृद्धि भी उसकी होती है, किन्तु उनकी नहीं। (सत्य यह है कि) महान " (व्यक्तियों) का (ही). चढ़ना (और) गिरना होता है, परन्तु सामान्य (व्यक्ति) हमेशा गिरे हुए (ही) हैं। जीवन-मूल्य ] [ 25 For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75. नहु कस्स वि देति षणं अन्नं तं पितह निवारंति । प्रत्या कि किविरणस्था सस्थावस्था सुयंति व्व ॥ 76. निहणंति षणं धरणीयलम्मि इय जारिणऊन किविराजरणा । पायाले गंतव्वं ता गच्छउ प्रग्गठाणं पि। 77. करिणो हरिणहरवियारियस्स दीसंति मोतिया कुमे। किविणारण नवरि मरणे पयः च्चिय हंति भंगरा ॥ 78. देमि न कस्स वि जंप उद्दारजरणस्स विविहरयणाई । चाएण विणा वि नरो पुणो वि लच्छीइ पम्मुक्को । 79. जीयं जलबिंदुसमं उप्पज्जइ जोव्वरण सह जराए। _ वियहा दियहेहि समा न हुंति किं निठ्ठरो लोगो ॥ 80. विहडंति सुया विहति बंधवा विहडेह संचिसो अत्यो। एक्कं नवरि न विहडइ नरस्स पुव्वक्कयं कम्मं ॥ 26 ] [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75. 76. ( कृपरण) किसी के लिए भी धन नहीं देते हैं । तथा (धन) देते हुए दूसरे (व्यक्ति) को भी (वे) रोकते हैं। क्या ( हम कहें कि) कृपरण- स्थित (कृपणों के द्वारा संचित किए हुए) रुपये - पैसे अपने आप में स्थित ( व्यक्ति की ) दशा की तरह सोते हैं ( निष्क्रिय होते हैं) । 77. सिंह के नखों द्वारा चीरे हुए हाथी के गण्डस्थल पर (तो) मोती देखे जाते हैं, किन्तु कृपरणों के भण्डार मरने पर ही प्रकट होते हैं । 79. कृपरण लोग भूमितल में धन को गाड़ते हैं । इस तरह सोचकर (कि ) ( उनके द्वारा) पाताल में पहुँचे जाने की संभावना है । इस कारण से (धन) भी आगे स्थान को ( पाताल में ) जाना चाहिए । 78. ( यद्यपि ) ( कृपरण) (कभी) नहीं कहता है, "मैं किसी भी श्रेष्ठ जन के लिए विविध रत्नों को देता हूँ", फिर भी ( ठीक ही है ) ( लक्ष्मी के) त्याग के बिना ही मनुष्य लक्ष्मी के द्वारा परित्यक्त होता है । 80. जीवन जल-बिन्दु के समान ( क्षरण - भंगुर ) ( है ) | यौवन बुढ़ापे के साथ उत्पन्न होता है । दिवस दिवसों के समान नहीं होते हैं। ( फिर भी ) मनुष्य निष्ठुर क्यों है ? पुत्र अलग हो जाते हैं, बंधु ( भी ) अलग हो जाते हैं, संचित अर्थ भी अलग हो जाता है, ( किन्तु ) मनुष्य का केवल एक पूर्व में किया हुआ कर्म अलग नहीं होता । जीवन-मूल्य ] For Personal & Private Use Only [ 27 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81. रायंगणम्मि परिसंठियस्स जह कुंजरस्स माहप्पं । विभसिहरम्मि न तहा ठाणेसु गुणा विसति ॥ 82. ठाणं न मुयइ धीरो ठक्कुर संघस्स वुट्ठवग्गस्स । ठतं पिबेद्द जुज्भ ठाणे ठाणे जसं लहइ || 83. जड़ नत्थि गुणा ता कि कुलेण गुरिणरणो कुलेण न हु कज्जं । कुलमकलंकं गुणवज्जियारण गरुयं चिय कलंकं ॥ 84. गुणहोरगा जे पुरिसा कुलेण गव्वं वहति ते मूढा । वसुप्पन्नो वि धणू गुणरहिए नत्थि टंकारो ॥ 85. जम्मंतरं न गरुयं गरुयं पुरिसस्स गुरणगरगारहणं । मुत्ताहलं हि गरुयं न हु गरुयं सिप्पिसंपुज्यं || 36. खरफरुसं सिप्पिउडं रयणं तं होइ जं प्रणग्धेयं । जाई कि व किज्जइ गुणेहि बोसा फुसिज्जति ॥ 28 ] For Personal & Private Use Only [ वज्जालग्ग में Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81. जिस तरह राजा के आँगन में स्थित हाथी की महिमा (होती है), (किन्तु) विद्य पर्वत के शिखर पर (स्थित हाथी की महिमा) नहीं (होती है), उसी तरह (उचित) स्थानों पर गुण खिलते हैं। धीर पुरुष मुखियाओं के समूह का तथा दुष्ट समूह का (विरोध होते हुए भी) स्थान (पद) को नहीं छोड़ता है, किन्तु (वह) स्थिर (रहता हुआ) विरोध करता है। (इसके फल स्वरूप वह) स्थान स्थान पर यश को प्राप्त करता है। यदि गुण नहीं है तो उच्च कुल से क्या लाभ ? गुणी के लिए उच्च कुल से कोई भी प्रयोजन नहीं है । गुणहीन के कारण कलंक-रहित कुल पर निश्चय ही बड़ा कलंक लगता है। 84. जो पुरुष गुण-हीन हैं, वे मूढ कुल के कारण गर्व धारण करते हैं। (ठीक ही है) यद्यपि धनुष बाँस से उत्पन्न (है), (तो भी) रस्सी-रहित होने के कारण (उसमें) टंकार (संभव) नहीं होती है। 85. जन्म-संयोग महान् नहीं (होता है), पुरुष के द्वारा गुण-समूह का ग्रहण महान् (होता है)। मोती ही श्रेष्ठ होता है, किन्तु सीप का खोल श्रेष्ठ नहीं होता है। 86. सीप का खोल रूखा और कठोर होता है, (फिर भी उसमें) जो रत्न (उत्पन्न) होता है, वह बहुमूल्य होता है, बतलाइए . तो, जन्म से क्या किया जाता है ? दोष (तो) गुणों से पोंछ दिए जाते हैं। जीवन मूल्य ] . [ 29 For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87. जंजाणइ भणइ जनो पुरणाण विहवाण मंतरं गत्यं । लम्भह गुणेहि बिहवो विहवेहि गुणा न घेप्पंति ॥ ... 88. पासपरिसंठिम्रो विहु गुरणहीणे कि करेइ गुणवंतो। जायंषयस्स वीवो हत्यको निष्फलो च्चेय ।।.. 89. परलोयगयाणं पि हु पच्छत्तामो न ताण पुरिसाणं। जाण गुगुच्छाहेरणं जियंति वंसे समुप्पना ॥ 90. सज्मणसलाहणिजे पयम्मि प्रप्पा न ठाविमो हि । सुसमत्था जे न परोक्यारिणो तेहि विन किपि॥ 91. सुसिएण निहसिएण वि तह कह विहुचंदणेण महमाहियं । सरसा वि कुसुममाला जह माया परिमलविलक्षा। 92. एक्को चिय बोसो तारिसस्स चंदणदुमस्स विहिरियो। जीसे दुट्ठभुयंगा खरणं पिपासं न मेल्लंति ॥ बहुतरुवराण माझे चंदनविश्वो भयंगबोसेण । छिज्झा निरावराहो साहु व्व असाहुसंगेण ॥ 30] [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87. मनुष्य जिस बात को (सत्य) समझता है (उसको) कहता है (कि) गुणों (और) वैभवों का बड़ा अन्तर है । (मनुष्य द्वारा) गुणों से वैभव प्राप्त किया जाता है, (किन्तु) (उनके द्वारा) वैभवों से गुण प्राप्त नहीं किए जाते हैं। 88. पास में स्थित गुणवान भी गुणहीन में क्या करेगा ? जन्मे हुए (जन्म से) अन्धे के लिए हाथ में पकड़ा हुआ दीपक निष्फल ही होता है। 89. परलोक में भी गए हुए उन पुरुषों के (मन में) जिनके गुणों के उत्साह से वंश में उत्पन्न (व्यक्ति) जीते हैं, निश्चय ही पश्चाताप नहीं है। 90. सज्जनों के द्वारा प्रशंसा किए जाने योग्य मार्ग पर आत्मा जिनके द्वारा स्थापित नहीं की जाती है (तथा) सुसमर्थ (होते हुए) भी जो दूसरों का उपकार करने वाले नहीं हैं, उन (दोनों) के द्वारा कुछ भी (लाभ) नहीं है। 91. सूखे हुए तथा घिसे गए चन्दन के द्वारा भी निश्चय ही किसी .. न किसी प्रकार गंध फैली हुई है, जिससे कि अस्तित्व में आई हुई (बनी हुई) सरस फूलों की माला भी सुगन्ध से लज्जित .(होती है)। 92. विधि के द्वारा घड़े हुए उस जैसे चन्दन के वृक्ष का एक ही . दोष है (कि) दुष्ट सर्प क्षण भर के लिए भी जिसके (उसके) आस-पास को नहीं छोड़ते हैं। 93. बहुत बड़े वृक्षों के बीच में चंदन की शाखा सर्प दोष के कारण काट दी जाती है, जैसे अपराध-रहित भद्र पुरुष दुष्टसंग के कारण (कष्ट दिया जाता है)। जीवन-मूल्य ]. [31 For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94. रयणायरेण रयणं परिमुक्कं जह वि प्रमुरिणयगुणेण । तह बि हु मरगयखंड जत्थ गयं तत्थ वि महग्घं ॥ 95. मा बोसं चिय गेव्हह विरले वि गुणे पसंसह जणस्स । प्रक्लपउरो वि उवही भगइ रयणायरो लोए ॥ 1: 96. लच्छोह विणा रयणायरस्स गंभीरिमा तह न्वेव सा लक्छो तेण विरगा भण कस्स न मंदिरं पत्ता ॥ 97. वडवाणलेण गहिश्रो महिश्रो य सुरासुरेहि समलेहि । लच्छोह उवहि मुक्को पेच्छह गंभीरिमा तस्स ॥ 98. रयणेहि निरंतर पूरिएहि रयरगायरस्स न हु गव्वो । करिणो मुत्ताहलसंसए वि मयविग्भला बिट्ठी ॥ 99. रयणायरस्स न हु होइ तुच्छिमा निग्गएहि रयगोह । तह विहु वंदसरिच्छा विरला रयणायरे रयणा ॥ 100. 32 ] जइ वि. हु कालवसेर ससी समुद्दाउ कह वि विडियो । तह वि हु तस्स पयासो प्रारणंवं कुरणइ दूरे वि ॥ For Personal & Private Use Only [ वज्जालग्ग में Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94. समुद्र के द्वारा नहीं जाने हुए गुणों के कारण (समुद्र के द्वारा) रत्न यद्यपि परित्याग किया गया है, तो भी पन्ने का टुकड़ा जहाँ भी गया वहाँ ही मूल्यवान (सिद्ध हुआ है)। 95. (किसी भी) मनुष्य के दोष को ही ग्रहण मत करो, (उसके विरल गुणों की (भी) प्रशंसा करो । बहुत अधिक रुद्राक्ष (युक्त) समुद्र भी लोक में रत्नाकर कहा जाता है। 96. लक्ष्मी के बिना (भी) रत्नाकर की गंभीरता उसी तरह ही (बनी हुई है), (किन्तु) कहो, वह लक्ष्मी उसके (समुद्र के) बिना किसके घर नहीं पहुंची? 97. (यद्यपि) समुद्र वाडवानल (भीतरी भाग) के द्वारा असा हुआ (है), सकल सुर-असुरों द्वारा मथा गया (है) और लक्ष्मी के द्वारा त्यागा गया (है), (फिर भी) उसकी गंभीरता को देखो। 98. रत्नों से निरन्तर भरे हुए भी रत्नाकर के गर्व नहीं है, (किन्तु) मोती के संशय में भी हाथी की मद में तल्लीन दृष्टि (होती है)। 99.. बाहर निकले हुए रत्नों के कारण भी समुद्र के तुच्छता नहीं होती है, किन्तु फिर भी (यह कहा जा सकता है कि) समुद्र में थोड़े (ही) रत्न चन्द्रमा के समान होते हैं (जो समुद्र के ‘लिए मानन्द करते हैं)। 100. यद्यपि विधि के वश से ही चन्द्रमा किसी प्रकार समुद्र से बिछड़ा हुआ है, तो भी उसका प्रकाश दूर होने पर भी - (समुद्र के लिए) आनन्द करता है। जीवन-मूल्य ] . . [ 33 For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = ( अ ) अव्यय ( इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) - अकर्मक क्रिया अक अनि आज्ञा कर्म - अनियमित -प्राज्ञा — कर्मवाच्य संकेत-सूची (क्रिवि) - क्रियाविशेषण अव्यय ( इसका अर्थ = लगाकर लिखा गया है) तुवि - तुलनात्मक विशेषण -पुल्लिंग पु० प्रे. - प्रेरणार्थक क्रिया - भविष्य कृदन्त भवि - भविष्यत्काल भाव - भाववाच्य भू - भूतकाल 34 ] वि विषि विधिक संकु सक सवि स्त्री हेक ( ) - भूतकालिक कृदन्त - वर्तमानकाल : - वर्तमान कृदन्त - विशेषरण - विधि - विधि कृदन्त - सर्वनाम - . -सम्बन्ध कृदन्त - सकर्मक क्रिया - सर्वनाम विशेषरण —स्त्रीलिंग — हेत्वर्थ कृदन्त -- इस प्रकार के कोष्टक में मूल शब्द रक्खा गया है। [ ( ) + ( ) + ( ).... ] इस प्रकार के कोष्टक के अन्दर + चिन्ह किन्हीं शब्दों में संधि का द्योतक है । यहाँ अन्दर के कोष्टकों में गाथा के शब्द ही रख दिए गए हैं । [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [( )-( )-( ) ..] 1/1-प्रथमा/एकवचन . इस प्रकार के कोष्टक के अन्दर '-' 1/2-प्रथमा/बहुवचन चिह्न समास का घोतक है। 2/1-द्वितीया/एकवचन 2/2-द्वितीया/बहुवचन • जहां कोष्टक के बाहर केवल संख्या 3/1-तृतीया/एकवचन .(जैसे) 1/1, 2/1""मादि) ही लिखी 3/2-तृतीया/बहुवचन है वहां उस कोष्टक के अन्दर का शब्द - 4/1-चतुर्थी/एकवचन 4/2-चतुर्थी/बहुवचन • जहां कर्मवाच्य, कृदन्त प्रादि प्राकृत 5/1-पंचमी/एकवचन के नियमानुसार नहीं बने हैं वहां 5/2-पंचमी/बहुवचन कोष्टक के बाहर 'अनि' भी लिखा 6/1-षष्ठी/एकवचन गया है। 6/2-षष्ठी/बहुवचन 1/1 अक या सक-उत्तम पुरुष/ . .7/1-सप्तमी/एकवचन एकवचन 7/2--सप्तमी/बहुवचन 1/2 अक या सक-उत्तम पुरुष/ 8/1-संबोधन/एकवचन बहुवचन . 8/2-संबोधन/बहुवचन 2/1 अक या सक-मध्यम पुरुष .. एकवचन 2/2 अक या सक-मध्यम पुरुष/ बहुवचन सक-अन्य पुरुष . . एकवचन 3/2 अक या. सक-अन्य पुरुष/ .. . बहुवचन जीवन-मूल्य ] [ 35 For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक भूकृ 1. दुक्खं (त्रिवि) = बड़ी कठिनाई से । कीरह (कीरह) व कर्म 3 / 1 अनि । कव्वं (कव्व) 1/1 । कव्वम्मि ( कव्व) 7 / 1। कए ( कम ) 7/1 अनि । पउंजणा (पउंजणा ) 1 / 1 संते (संत) 7 / 1 परंजमाने (पउंज ) वकृ 7 / 1 | सोयारा ( सोयार ) 1/2 | बुल्लहा ( दुल्लह) 1/2 वि । हुंति (हु) व 3 /2 श्रक । I | वि । व्याकरणिक विश्लेषण 2. गाहा ( गाहा ) 1 / 1 | अइ (रुद्र) व 3 / 1 ग्रक । प्रणाही ( मरणाहा ) 1 / 1 वि। सोसे (सीस) 7/1 । काऊरण ( काऊरण) संकृ अनि । वो (दो) 1 / 1 वि । वि ( अ ) = ही । हत्याओं ( हत्था ) 2 / 2 | सुकईहि ( सुकइ ) 3 / 2 | तुक्खरइया [ ( दुक्ख ) क्रिविन = बड़ी कठिनाई से - ( रन ) भूकृ 1 / 1] । सुहेण (त्रिवि) = आसानी से । सुक्खो ( मुक्ख ) 1 / 1 वि । विणाes (विरणास ) व 3 / 1 सक | 3. गाहाहि ( गाहा) 3/21 को (क) 1 / 1 सवि । न (घ ) = नहीं होरह (हीरइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि । पियान (पिय) 6 / 2 वि । मितान' ( मित्त) 6 / 21 संभरइ (संभर) व 3 / 1 सक । मिज्ज (दूम) व कर्म 3 / 1सक | वि. (न) = तथा । मिएन (दूम) भूक 3 / 1 | सुयलेज ' (सुयरण) 3 / 1 रयलेज' ( यरण ) 3 / 1 वि । 1. स्मरण अर्थ की क्रियानों के साथ कर्म में षष्ठी होती है । 2. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के होता है । 36 ] स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग ( हेम प्राकृत व्याकरण 3 - 137 वृत्ति ) [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. पाइयकम्पम्मि [(पाइय)-(कव्व)7/1 ] । रसो (रस) 1/11 को (ज) 1/1 सवि । जायइ (जा) व 3/1 प्रक। तह य (म) = उसी तरह ही। चेयमणिएहिं [(छेय)-(भण) भूक 3/2] । उययस्स(उयय) 6/1। य (प्र)=तथा । वासियसीयलस्स [(वास) भूक-(सीयल) 6/1 वि] । तित्ति (तित्ति) 2/1। न (म)=नहीं। बच्चामो (वच्च) व 1/2 सक। 1. कभी कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-136). 2. 'जा' (उत्पन्न होना) के योग में पंचमी या सप्तसी विभक्ति का प्रयोग होता है । 'जा' से 'जायइ' बनाने के लिए 'म' (य) विकल्प से जोड़ दिया जाता है। 3. कभी कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया या पंचमी विभक्तिके स्थान पर पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) 5. पाइयकबस्स' [(पाइय)-(कन्व) 4/1] | नमो' (म)=नमस्कार । पाइयकर्ष [(पाइय)-(कव्व) 1/1] । च (म)= तथा। निम्मियं (निम्म) भूक 1/1 | बेग (ज) 3/1 सवि । ताह' (त) 4/2 अपभ्रंश । चिय (म)=भी। पणमामो' (पणम) 1/2 सक । पडिऊण (पढ) संक। य (म)=तथा । (ज) 1/2 सवि । वि (म)=भी। जागति (जाण) व 3/2 सक। 1. 'नमो' (नमस्कार अर्थ) के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। 6. सुयणो (सुयण) 1/1। सुखसहाबो [(सुद्ध) वि-(सहाव) 1/1] । महलिवतो (मइल) कर्मवक 1/1। वि (म) = भी। दुज्जननण [(दुज्जण)-(जण) 3/1] । चारेण (धार) 3/1 । बप्पणो (दप्पण) 1/1। विय (म) = जैसे। पहियपरं (महिययर) 1/1 तुवि । निम्मलो (निम्मल) 1/1 वि । होइ (हो) व 3/1 मक। 7. सुपलो (सुयण) 1/1 । न (म)= नहीं । कुप्पइ (कुप्प) व 3/1 सक । च्चिय (म)=भी । अह (म) = यदि । मंगुलं (मंगुल) 2/1 । चितेह जीवन-मूल्य ] [ 37 For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (चित) व 3 / 1 सक । जंपइ ( जंप ) व 3 / 1 सक। लम्बिरो ( लज्जिर) 1 / 1 वि होइ (हो) व 3/1 अक । 8. बिट्ठा ( दिट्ठ) भूकृ 1 / 1 ( दुक्ख ) 2 / 1 | जंपता ( जंप ) वकृ 1 / 2 सयलसोक्खाई [ ( सयल) वि - ( सोक्ख ) 2 / 2]। विहिणा (विहि ) 3 / 1। (सुयरण) 1/2 । जं (अ ) = कि । निम्मिया (निम्म) सुकयं ( सु-कय ) भूक ( भुवरण) 7 / 1 । अनि । हरंति (हर) व 3 / 2 सक। सुक्ख बेंति (दा) व 3 / 2 सक। एवं 9. न ( अ ) = नहीं । हसंति ( हस) व 3 / 2 सक । परं ( पर) । (थुव) व 3 / 2 सक । अध्ययं ( अप्पय ) 2 / 1 । ( सय) 2 / 2 ] जंपति ( जंप ) व 3 / 2 सक। सुयणसहावो [ ( सुयण) - ( सहाव ) 1 / 1 ] | ताण' (त) 4 / 2 सवि । पुरिसाणं (पुरिस) 4 / 2 | नमो 1. 'नमो' के योग में चतुर्थी होती है । 38] (ए) 1 / 1 सवि । 1 / 1 पनि । सुयणा भूकृ 1 / 2 | भुवरले 1 10. प्रकए ( क ) भूकृं 7 / 1 अनि । वि (प्र) = तथा । कए (कन ) भूकृ 7 / 1 अनि । वि (प्र) = भी। पिए (पिन) 7 / 1 वि । पियं (पिय) 2 / 1 वि । कुणंता (कुण) व 1 / 2 | जयम्मि ( जय ) 7 / 11 वीसंति (दीसंति) व कर्म 3/2 सक अनि । कयविप्पिए [ ( कय) भूकृ अनि - ( विप्पिन) 7/1 वि ] । वि ( अ ) = भी। हु ( अ ) किन्तु । कुणंति ( कुरण) व 3/2 सक । ते (त) 1/2 सवि । बुल्लहा ( दुल्लह) 1/2 वि । सुयणा ( सुयण) 1 / 2। 2 / 1 । थुवंति पियसयाह [ ( पिय) वि एसो ( एत) 1 / 1 सवि । (प्र) = नमस्कार । भणसि ( भरण) व 2/1 संक । 11. फरसं (फरस) 2 / 11 न ( प्र ) = नहीं । मणिप्रो ( भरण) भूकृ 1 / 1 । वि (प्र) = भी। हससि (हस ) व 2 / 1 श्रक । हसिऊण (हस) संकृ । जंपसि ( जंप ) व 2 / 1 सक । पियाई ( पिय) 2 / 2 वि । सज्जण ( सज्जरग ) 8 / 1 | तुज्झ ( तुम्ह) 6 / 1 स । सहावो For Personal & Private Use Only [ वज्जालग्ग में Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सहाव) 1/1 | याणिमो (याण) व 1/2 सक। कस्स (क) 6/1 सवि । सारिच्छो (सारिच्छ) 1/1 वि। .. . 12. नेच्छसि (न+इच्छसि) । न (अ) = नहीं इच्छसि (इच्छ) व 2/1 सक। परावयारं [(पर+(प्रवयारं)] [(पर)-(अवयार) 2/1] । परोवयारं [(पर)+(उवयारं)] [(पर)-(उवयार) 2/1] । (म) = इसके विपरीत । निच्चमावहसि (निच्चं+आवहसि) निच्चं (अ) = सदा आवहसि (प्रावह) व 2/1 सक । अवराहेहि (प्रवराह) 3/2। कुप्पसि (कुप्प) व 2/1 सक। सुयण (सुयण) 8/1 | नमो (अ) = नमस्कार । तुह (तुम्ह) 4/1 स । सहावस्स (सहाव) 4/11 13. बोहिं (दो) 3/2 वि । चिय (प्र) =ही। पज्जतं (पज्जत्त) 1/1। बहुएहि (बहुअ) 3/2 वि । वि (अ) = भी। कि (किं) 1/1 सवि । गुलेहि (गुण) 3/2। सुयणस्स (सुयण) 6/1 । विज्बुप्फुरियं [(विज्जु)-(प्फुरिय) 2/1 वि] । रोसो (रोस) 1/1 । मित्ती (मित्ती) 1/11 पाहागरेह [(पाहाण)-(रेहा) 1/1 आगे संयुक्त अक्षर (न्व) के . आने से दीर्घ स्वर हस्व स्वर हुआ है] । व्व (म) = की तरह। 1. कभी कभी प्रथमा विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का . प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137 वृति) 14. वीणं (दीण) 2/1 । अग्भुखरिउ (मन्भुद्धर) हेकृ । पत्त' (पत्त) 7/1 _ वि.। सरणागए [(सरण)+(प्रागए)] [(सरण)-(प्रागन) भूक 7/1 अनि] । पियं (पिय) 2/1 वि । काउं' (काउं) हेकृ अनि । अवरसु (अवरद्ध) 7/21 वि (अ) = भी । खमि (खम) हेकृ । सुयणो (सुयण) 1/1। च्चिय (प्र) = ही । नवरि (प्र) = केवल । जाणेइ (जाण) व 3/1 सक। 1. 'समर्थ आदि का बोध कराने वाले शब्दों के साथ हेव का प्रयोग होता है। . . 2. कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135) जीवन-मूल्य ] . [ 39 For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि । पि धरणी ( धरणि) 1 / 1 | सवि । मई ( मइ ) 1 / 1 15. वे (बे) 2/2 वि । पुरिसा ( पुरिस) 2 / 2 धरह (घर) व 3 / 1 सक। धरा ( धरा ) 1 / 1 | अहवा (प्र) = प्रथवा । बोहि (दो) 3/2 (घ) = ही । धारिया (धार) भूकृ 1 / 1 'उवयारे (उपयार) 7 / 1। जस्स (ज) 6 / 1 उवयरियं ( उवयर) भूकृ 2 / 1। जो (ज) 1 / 1 स वि । न ( अ ) = नहीं । पसह (पम्हुस ) व 3 / 1 सक । 16. सेला (सेल) 1/2 । चलंति (चल) व 3 / 2 अक । पलए ( पलन) 7 / 1 । मज्जायं (मज्जाय) 2 / 1 । सायरा ( सायर) 1 / 21 वि (प्र) = भी। मेल्लं ति (मेल्ल) व 3 / 2 सक। सुयरगा ( सुयरण) 1/2 । तह (त) 7/1 सवि । पि ( अ ) = भी। काले (काल) 7/1 । पडिवन (पडिवन्न) भूक 2 / 1 प्रनि । नेय (प्र) = कभी नहीं। सिविलंति (सिढिल ) व 3 / 2 सक । 17. चंदणत [ ( चंदर ) - (तरु) 1 / 1 श्रागे संयुक्त अक्षर (व्व) के माने से दीर्घ स्वर हृस्व स्वर हुआ है ] । व्व (प्र) = की तरह । सुयणा (सुन) 1/2 । फलरहिया [ (फल) - (रह ) भूकृ 1 / 2 ] । जइ वि (श्र) = यद्यपि । निम्मिया ( निम्म ) भूकृ 1 / 2 । विहिणा (विहि ) 3 / 1 तहवि (प्र) = तो भी । कुणंति ( कुरण) व 3 / 2 सक | परस्थं ( परत्थ) 2 / 1 । निययसरीरेण [ ( निय) विस्वाधिक 'य' - ( सरीर ) 3 / 1 ] । लोयल्स ( लीग) 6 / 1 । 18. गुणिणो ( गुरण) 1 / 2। गुलेहि ( गुण) 3 / 2 । विहवेहि (विहव) 3 / 2 1 विहविणो ( विहवि) 1/2 होंतु (हो) विधि 3 / 2 अंक । गब्विया (गव्विय) 1 / 2 वि । नाम (प्र) = संभावना । बोसेहि (दोस ) 3 / 2 | नवरि ( अ ) = केवल । गव्वो ( गव्व) 1 / 1 । खलाण (खल) 6 / 2 | मग्गो ( मग्ग) 1 / 1 | च्चिय (प्र) = ही । अउब्वो ( उव्व) 1 / 1 वि । 19. संत (संत) 2 / 1 वि । न ( प्र ) = नहीं । देति (दा) व 3 / 2 सक । वारेंति (वार) व 3 / 2 सक । दैतयं (दा) व 2 / 1 'य' स्वार्थिक 40 ] For Personal & Private Use Only [ वज्जालग्ग में Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यय । विनयं (दिन्न) 2/1 वि 'य' स्वार्थिक प्रत्यय । पि (प्र) = भी। हारंति (हार) व 3/2 सक। अणिमित्तवइरियाणं [(अरिणमित्त)(वइरिय) 6/2 वि] । खलाण (खल) 6/2। मग्गो (मग्ग). 1/1 । च्चिय (अ)=ही । अउब्बो (अउन्च) 1/1 वि। . 20. जेहिं (ज) 3/2 सवि । चिय (अ)= ही । उग्मविया (उब्भव) भूकृ 1/2 । जाण (ज) 6/2 स । पसाएण (पसान) 3/1 । निग्गयपयावा [(निग्गय) भूक अनि-(पयाव) 1/2] । समरा (समर) 1/2 । म्हंति (डह) व 3/2 सक । विझ (विझ) 2/1 । खलाण (खल) 6/2 । मग्गो (मग्ग) 1/1 | छिचय (प्र)= ही । अउव्वो (अउब्व) 1/1 वि । 21. सरसा (सरस) 1/2 वि । वि (प्र) = भी। दुमा (दुम) 1/2 । दावारणलेण (दावाणल) 3/1 । उझंति (डझंति) व कर्म 3/2 सक अनि । सुक्खसंवलिया [(सुक्ख) वि-(संवलिय) 1/2 वि । बुज्जणसंगे [(दुज्जण)-(संग) 7/1] । पत्ते (पत्त) 7/1 वि । सुयणो (सुयण) 1/1। वि (प्र) = भी। सुहं (सुह) 2/1 न (प्र) = नहीं। पावेइ (पाव) व 3/1 सक। 22. धन्ना (धन) 1/2 । बहिरंपलिया [(बहिर) + (अंधल) + (इया)] [(बहिर) वि-(अंघल) वि-(इय) 1/2 वि] । बो (दो) 1/2 वि । च्चिय (प्र) = ही । जीवंति (जीव) व 3/2 अक । माणुसे (माणुस) . 7/1। लोए (लोअ) 7/1 । न (प्र) = नहीं। सुगंति (सुण) व 3/2 सक। पिसुरणवयरणं [(पिसुण)-(वयण) 2/1] । खलस्स (खल) 6/1 । रिडी (रिदि) 2/2 । पेच्छति (पेच्छ) व 3/2 सक। 23. एक्कं (एक्क) 1/1 वि । चिय (अ)=ही। सलहिज्जा (सलह) व कर्म 3/1 सक । विसत्यिहाण [(दिणेस)-(दियह) 6/2] । नवरि (अ)=केवल । निव्वहणं (निव्वहण) 1/1 । आजम्म (अ) = आजन्म । एक्कमेक्केहि (एक्कमेक्क) 3/2 वि । बेहि (ज) 3/2 स । विरहो जीवन-मूल्य ] [ 41 For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (विरह) 1/11च्चिय (अ) = ही । न (अ) = नहीं । विट्ठी (दिठ्ठ) भूकृ 1/1 अनि । . . .. 24. पडिवन (पडिवन्न) भूक 1/1 अनि । दिणयरवासराण [(दिणयर) (वासर) 6/2] । बोहं (दो) 6/2 वि । अखंडियं (म-खंड) भूकृ 1/1। सुहइ (सुह) व 3/1 अक। सूरो (सूर) 1/11 न (अ) = नहीं । विरोण (दिण) 3/1 | विणा (अ) = बिना। विणो (दिण) 1/1। वि (प्र) = भी । हु (अ)= निश्चय ही । सूरविरहम्मि [(सूर)-(विरह) 7/1] । 1. "बिना' के योग में तृतीया, द्वितीया या पंचमी विभक्ति होती है। 25. तं (त) 1/1 सवि । मित्तं (मित्त) 1/1 कायव्वं (कायव्वं) विधिक 1/1 अनि । जं (ज) 1/1 स । किर (म)=निश्चय ही । वसणम्मि (वसण) 7/1 | वेसकालम्मि [(देस)-(काल) 7/1] । प्रालिहियमित्तिबाउल्लयं [(प्रालिह)भूक-(भित्ति)-(बाउल्ल)1/1 स्वार्थिक 'य' प्रत्यय] । व (अ)= की तरह । न (अ)= नहीं। परंमुहं (परंमुह) 1/1 वि । गइ (ठा) व 3/1 अक। 26. छिज्जउ (छिज्जउ) विधि कर्म 3/1 सक अनि । सीसं (सीस) 1/1। अह (अ)= यदि । होउ (हो) विधि 3/1 अक । बंधणं (बंधण) 1/11 चयउ (चय) विधि 3/1 सक । सव्वहा (म)= पूर्णतः । लन्छी (लच्छी) 1/1 । परिवनपालणे [(पडिवन्न) भूक अनि-(पालण) 7/1] । सुपुरिसाण (सुपुरिस) 6/2 । (ज) 1/1 सवि । होइ (हो) व 3/1 अक । तं (त) 1/1 सवि । होउ (हो) विधि 3/1 प्रक। 27. कोर (कीरइ) व कर्म 3/1 सक अनि । समुद्दतरणं. [(समुद्द)-(तरण) 1/1] । पविसिम्बइ (पविस) व कर्म 3/1 सक । हुयवहम्मि' (हुयवह) 7/1। पम्मलिए' (पज्जल) भूक 7/1। आयामिज्जइ (मायाम) व 42 ] . [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म 3/1 सक। मरणं (मरण) 1/11 नत्थि (अ) = नहीं। दुसंघ (दुलंघ) 1/1 वि । सिरणेहस्स (सिरोह) 4/11 1. कभी कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135) 28. एक्काइ' (एक्काइ) वि। नवरि (अ)=केवल । नेहो (नेह) 1/1 । पयासिनो (पयास)भूक 1/1। तिहुयणम्मि (तिहुयण) 7/1 । जोहाए (जोहा) 3/1 | जा (जा) 1/1 स । झिज्जइ (झिज्ज) व 3/1 अक । झीले (झीण) 7/1 वि । ससहरम्मि (ससहर) 7/1। वडेढ्इ (वड्ढ़) व 3/1 प्रक । बढ़ते (वड्ढ) व 7/11 1. कर्ता कारक में केवल मूल शब्द भी काम में लाया जा सकता है । .. (पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 518) 29. झिज्जइ (झिज्ज) व 3/1 अक। झीणम्मि (झीण) 7/1 वि । सया (म) = सदा । वह (वड्ढ) व 3/1 अक । वड्ढंतयम्मि (वड्ढ) वकृ स्वार्थिक 'य' प्रत्यय 7/1। सविसेसं (क्रिवित्र) = विशेष प्रकार से । सायरससीण [(सायर)-(ससि) 6/2] । छज्जइ (छज्ज) व 3/1 अक । जयम्मि (जय) 7/1। परिवन्नणिज्वहणं [(पडिवन्न) भूक अनि (रिणव्वहण) 1/1] । . 30. परिवन्न (पडिवन्न) भूक 1/1 अनि । जेण (ज) 3/1 स समं (अ) = साथ । पुम्वणिओएण [(पुव्व)-(रिणोप) 3/1] । होइ (हो) व 3/1 अक । जीवस्स (जीव) 6/1। दूरट्ठिमो [(दूर) = दूर (ट्ठिा ) भूक .1/1 अनि] । न (म) = नहीं। दूरे (म) = दूर (फासले पर)। बह (अ)जैसे। चंबो (चंद) 1/1। कुमुयसंडाणं [(कुमुय)-(संड) 6/2] । 1. 'सम' के योग में तृतीया विभक्ति होती है। 31. दूरदिया [(दूर) प्रदूर-(ट्ठिय) भूकृ 1/2 अनि । न (प्र) = नहीं । दूरे (अ)= दूर (फासले पर)। सज्जणचित्ताण [(सज्जण) जीवन-मूल्य ] .. [ 43 For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (चित्त) 4 / 2]। पुब्वमिलियाणं [ ( पुव्व) क्रिविध = पूर्व में - (मिल ) भूकृ 4 / 2 ] । गयणट्ठियो [ ( गयरण ) - (ट्ठि) भूकृ 1 / 1]। बि (प्र) = भी। चंदो (चंद) 1 / 1 | आसासई (प्रासास) व 3 / 1 सक | कुमुयाई [ ( कुमुय ) - ( सड) 1 / 2 ] | = केण ( क ) 3 / 1 । होइ (हो) व 3 / 1 प्रक | परिओसो 32. एमेव ( अ ) इसी प्रकार । कह वि ( अ ) = किसी तरह । कस्स (क) 4 / 1 सवि । वि ( अ ) = भी। सवि । वि (प्र) = भी। विद्वेण (दिट्ठ) भूकृ 3 / 1 अनि ( परिनोस) 1 / 1 | कमलायराज ( कमलायर ) 3 / 11 कि ( कि) 1 / 1 सवि । कजं ( कज्ज) 1 / 1। स । वियसंति ( वियस ) व 3 / 2 अक । 6/21 33. कलो (प्र) = कहाँ से । उग्गमइ ( उग्गम ) व 3 / 1 अक । रई ( रइ) 1 / 1 | कतो ( अ ) = श्रौर कहाँ । वियसंति (वियस ) व 3 / 2 प्रक | पंकयवणाई [ ( पंकय ) - ( वरण) 1/2 ]। सुयरणाण (सुयरण ) 6 / 21 जए (जन) 7/1 नेहो (नेह) 1 / 1 । न ( अ ) = नहीं । चलइ (चल) ब 3 / 1 अक । दूरट्ठियाणं [ (दूर) अ = दूर - (ट्ठिय) भूकृ 6/2 अनि ] (अ) = भी। । पि रहणा (रह) जेण (ज) 3/1 34. संतेहि (संत) 3 / 2 वि । असंतेहि (प्रसंत) 3 / 2 वि । य ( अ ) = तथा । परस्स (पर) 6 / 1 वि । कि ( कि) 1 / 1 सवि । जंपिएहि (जंप ) भूकृ 3 / 2 | बोसेहि (दोस) 3 / 2 | अस्थो ( प्रत्थ) 1 / 1 । जसो (जस) 1 / 1 । न ( अ ) = नहीं । लम्मइ ( लब्भइ ) व कर्म 3 / 1 सक श्रनि । सो (त) 1 / 1 स । वि ( अ ) = किन्तु । अमिलो ( प्रमित्त) 1 / 1 को (क) भूकृ 1 / 1 अनि । होइ (हो) व 3 / 1 अक । 35. सील (सील) 1 / 1 । वरं (प्र) = श्रेष्ठतर । कुलाओ (कुल) 5 / 1। बालि ( दालिद्द) 1 / 1 | भव्वयं ( भव्व) 1 / 1 स्वार्थिक 'य' प्रत्यय वि । च (प्र) = तथा रोगाओ (रोग) 5 / 1 । विज्जा (विज्जा) 1 / 1। रज्जाउ 44 ] [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (रज्ज) 5/1 । खमा (खमा) 1/1 । सुद्छु (अ)= अच्छा । वि (अ)= तथा । तवानो (तव) 5/11 36. सोलं (सोल)1/1 । वरं (अ)= श्रेष्ठतर । कुलाओ (कुल) 5/11 कुलेण (कुल) 3/1 । किं (कि) 1/1 सवि । होइ (हो) व 3/1 अक । विगयसीलेण' [(विगय) भूक अनि-(सील) 3/1] । कमलाइ (कमल) 1/2। कद्दमे (कद्दम) 7/1। संभवंति (संभव) व 3/2 अक । न (अ) = नहीं। हु (अ)= किन्तु । हुंति (हु) व 3/2 अक । मलिणाई (मलिण) 1/2 वि। 1. कभी कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) 37. जं (प्र) = कि । जि (अ) =ही । खमेइ (खम) व 3/1 सक । समत्थो (समत्थ) 1/1 वि । षणवंतो (धरणवंत) 1/1 वि। न (अ)= नहीं। गव्यमुबहइ [(गव)-(मुव्वह) व 3/1 सक] । च (अ) = और । सविज्जो (सविज्ज) 1/1 वि । नमिरो (नमिर) 1/1 वि। तिसु' (ति) 7/2 वि । तेसु (त) 7/2 स । अलंकिया (अलं किया) 1/1 वि । पुहवी (पुहवी) 1/1। 1. कभी कभी सप्तमी विभक्ति का प्रयोग तृतीया विभक्ति के स्थान पर किया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-135) 38. छंदं (छंद) 2/1 । जो (ज) 1/1 सवि। अणुवट्टइ (अणुवट्ट) व 3/1 सक । मम्मं (मम्म) 2/1 । रक्खाइ (रक्ख) व 3/1 सक । गुणे (गुण) 2/2। पयासेइ (पयास) व 3/1 सक । सो (त) 1/1 स । नवरि (अ) =न केवल । माणुसाणं (माणुस) 6/2। देवाण (देव) 6/2 । वि (अ) = भी । वल्लहो (वल्लह) 1/1 वि । होइ (हो) व 3/1 अक । 39. लवणसमो [(लवण)--(सम) 1/1 वि ] । नस्थि (अ) = नहीं। रसो (रस) 1/11 विनाणसमो [(विन्नाण)-(सम) 1/1 वि ] । य (अ) = जीवन-मूल्य ] [ 45 For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और बंधवो ( बंधव) 1 / 1 | धम्मसमो [ ( धम्म ) - (सम) 1 / 1 वि ] । कोहसमो [ ( कोह) - (सम) 1 / 1 वि ] | वेरिश्रो निही ( निहि ) 1 / 1। (वेरिअ ) 1 / 1 वि । 40. कुप्पुरोहि ( कुप्पुत्त ) 3 / 2 46 [ ( गाम ) - ( गगर) 1 / 2 ] । पिसुणसी लेह [ ( पिसुरण ) - (सील) 3 / 2 ] | 2 प्रक । कुमंतीहि ( कुमति ) 3/2 | नराहिवा नासंति (नास) ब 3 / । कुलाई (कुल) 1 / 2 । गामणगराइ [ ( नर ) - ( अहिव) 1 / 2 ] । सुठु ( अ ) = श्रेष्ठ | [ (नर) + (अहिवा ) ] वि ( अ ) = भी। समिद्धा ( समिद्ध) 1 / 2 वि 1. 41. मा ( अ ) = मत । होसु (हो) विधि 2 / 1 अक । सुग्गाही [ ( सुय) वि(ग्गाही ) 1 / 1 वि] । पत्तीय ( पत्तीय) विधि 2 / 1 सक। जं (ज) 1 / 1 सवि । न ( अ ) = नहीं । विट्ठ ( दिट्ठ) भूकृ 1 / 1 अनि पच्चक्खं ( पच्चक्ख ) 1 / 1 1 पच्चवले ( पच्चक्ख ) 7 / 1 । वि (प्र) = भी। य (अ) = और। दिट्ठ (दिट्ठ) भूकृ 7 / 1 अनि । जुत्ताजुत [ ( जुत्त) + (जुतं ) ] [ ( जुत्त ) - ( अजुत्त) 2 / 1 वि ] | वियारह (वियार ) विधि 2 / 2 सक | | जे (ज) 1 / 2 1 वि । कज्जं 42. अप्पा (अप्पा) 2 / 1 | अमुनंता ( श्रमुरण) वकृ 1 / 2 स। प्रारंभंति ( आरंभ ) व 3 / 2 | डुग्गमं ( दुग्गम ) 2 / ( कज्ज) 2 / 1। परमुहपलोइयाणं [ ( पर ) - ( मुह ) - ( पलोअ ) ताणं (त) 4 / 2 सवि । कह' ( अ ) = किस तरह । होइ' (हो) व 3 / 1 श्रक । जयलच्छी [ ( जय ) - ( लच्छी) 1/1] । भूकृ 4 / 2 ] 1. प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमान काल का प्रयोग प्रायः भविष्यत् काल के अर्थ में होता है । 43. सिग्धं (प्र) = तेजी से । आरह (प्रारुह) विधि 2 / 1 सक । कज्जं ( कज्ज) | पार (पारद्ध) भूकृ 2 / 1 श्रनि । मा ( अ ) == मत । कहं (x) = किसी तरह । पि (श्र) = भी । सिढिलेसु (सिढिल) विधि 2 / 1 2 / 1 [ वज्जालग्ग में 1 For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सक । पारससिढिलियाई [(पारद्ध) भूकृ अनि-(सिढिल) भूकृ 1/2] । कम्जाइ (कज्ज) 1/2 । पुणो (अ)= फिर । न (अ) = नहीं । सिज्झति (सिज्म) व 3/2 प्रक। 44. झीणविहवो [(झीण) वि-(विहव) 1/1] । वि (अ) =ही । सुयगो (सुयण) 1/1 । सेवइ (सेव) व 3/1 सक । रणं (रण्ण) 2/1। न (अ) = नहीं । पत्थए' (पत्थ) व 3/1 सक । अन्न' (अन्न) 2/1 वि । मरणे (मरण) 7/1 | वि (म)=भी । अइमहग्धं [(अइ) = प्रति(महग्ध) 2/1] । न (अ) = नहीं । विक्किरणइ (विक्किरण) व 3/1 सक । माणमाणिक्कं [(माण)-(माणिक्क) 2/1] । 1. 'याचना' अर्थ की क्रिया के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। 45. नमिऊण (नम) संकृ । जं (ज) 1/1 सवि । विढप्पड (विढप्पइ) व कर्म 3/1 सक अनि । खलचलणं' [(खल)-(चलण) 2/1] । तिहुयणं (तिहुयण) 1/1। पि (म)=भी। किं (कि) 1/1 सवि । तेण (त) 3/1 स । मालेण (मारण) 3/1 | तणं (तरण) 1/1 । तं (त) 1/1 स। निव्वुइं (निन्युइ) 2/1 | कुणइ (कुण) व 3/1 सक । 1. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) 46. ते (त) 1/2 स । धन्ना (धन) 1/2 वि । ताण (त) 4/2। नमो (अ) = नमस्कार । गण्या (गरुय) 1/2 वि । माणिणो (माणि) 1/2 वि । पिरारंभा [(थिर) + (प्रारंभा)] [(थिर) वि-(प्रारंभ) 1/2] । ... जे (ज) 1/2 सवि । गल्यवसणपरिपेल्लिया [(गरुय)-वि (वसण) (पडि-पेल्ल) भूक 1/2] । वि (प्र) = भी । अन्न' (अन्न) 2/1 वि । न (अ)=नहीं । पत्थंति (पत्थ) व 3/2 सक। ___ 1. 'नमो' के योग में चतुर्थी होती है। 2. 'याचना' अर्थ की क्रिया के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है। जीवन-मूल्य ]. [ 47 For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47. तुंगो (तुग) 1/1 वि । च्चिय (अ)=ही । होइ (हो) व 3/1 प्रक। मणो (मण) 1/11 मसिनो (मणंसि) 6/1 | अंतिमासु (अंतिम) 7/2 वि । वि. (अ) =भी । सासु (दसा) '7/21 अत्यंतस्स (प्रत्थ) वक 6/11 रइणो (रइ) 6/11 किरणा (किरण) 1/21 उबं (क्रिविन) = ऊपर की ओर । चिय (अ)=ही । फुरंति (फुर) व 3/1 अक। 48. ता (प्र) = तब तक । तुगो (तुग) 1/1 वि । मेगिरी (मेरुगिरि) 1/1 | मयरहरो (मयरहर) 1/1। ताव (प्र) = तब तक । होइ (हो) व 3/1 अक । वुत्तारो (दुत्तार) 1/1 वि । विसमा (विसमा)-111 वि । कज्जगई (कज्ज)-(गइ) 1/1] । जाव (म)=जब तक । न (अ) = नहीं । धीरा (धीर) 1/2 वि। पवम्जति (पवज्ज) व 3/2 सक। 49. ता (म)=तब तक । विस्थिब्णं (वित्थिण्ण) 1/1 वि। गयणं (गयण) 1/1 | ताव (अ)= तब तक । च्चिय (प्र) =ही। जलहरा (जलहर) 1/2। प्रइगहीरा [(अइ)-(गहीर) 1/2 वि ] । गल्या (गरुय) 1/2 वि । कुलसेला (कुलसेल) 1/2। जाव (प्र) = जब तक । न (अ) = नहीं। धीरेहि' (धीर) 5/1 वि । तुल्लति (तुल्लंति) व कर्म 3/2 सक अनि । 1. जिससे तुलना की जाती है, उसमें पंचभी विभक्ति होती है। 50. मेरू (मेरू) 1/1। तिणं (तिण) 1/1। व (अ) जैसे कि । सग्गो (सग्ग) 1/1। घरंगणं [(घर) + (अंगणं)] [(घर)-(मंगण) 1/1] । हत्यचित्त [(हत्य)-(छित्त) 1/1 वि] । गयनयलं [(गयण)-(यल) 1/1] । वाहलिया (वाहलिया) 1/2। य (म)= जैसे कि । समुहा (समुद्द) 1/2। साहसवंताण (साहसवंत) 4/2 वि । पुरिसाणं (पुरिस) 4/2। 48 ] [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51. तं (त) 2/1। कि पी (प्र) = कुछ भी। साहसं (साहस) 2/1 । साहसेण (साहस) 3/1। साहंति (साह) व 3/2 सक। साहससहावा [(साहस)-(सहाव) 1/2] | कं (ज) 2/1 स । मांविऊण (भाव) संकृ । विग्यो (दिव्व) 1/1। परंमुहो (परंमुह) 1/1 | धुणइ (धुण) व 3/1 सक । नियसीसं [(निय) वि-(सीस) 2/1] । 52. जह (म)=जैसे। जह (अ)= जैसे। न (अ) = नहीं। समप्पड (समप्पइ) व कर्म 3/1 सक अनि । विहिवसेज [(विहि)-(वस) 3/1] । विहांतकज्जपरिणामो [(विहड) वक-(कज्ज)-(परिणाम) .. 1/1] । तह (अ)=वैसे। तह (म)= वैसे। धीराण (धीर) 6/2 वि। मणे (मण) 7/1। बढइ (वड्ढ) व 3/1 अक । बिउणो (बिउण) 1/1 वि । समुच्छाओ [(सम) + (उच्छाहो)] [(सम) वि-(उच्छाह) 1/1] । 53. फलसंपत्तीइ [(फल)-(संपत्ति) 7/1] । समोणयाइ (समोणय) 1/2 वि । तुंगार (तुग) 1/2 वि। फलविपत्तीए [(फल)-(विपत्ति) 7/1] । हिययाइ (हियय) 1/2 । सुपुरिसाणं (सुपुरिस) 6/2 । महातकणं [(महा)-(तरु) 6/2] । व (प्र) = की तरह । सिहराई (सिहर) 1/21 , 54. हियए (हियम) 7/1। जाओ (जा') भूकृ 1/1। तस्येव (म)= (तत्थ + एव) = वहाँ ही। बडिमो (वड्ढ) भूकृ 1/1। नेय (प्र) = कभी नहीं। पयरियो (पयड) भूक 1/1। लोए (लो) 7/11 ववसायपायवो [(ववसाय)-(पायव) 1/1] । सुपुरिसाण (सुपुरिस) 6/21 लक्खिम्बइ (लक्ख) व कर्म 3/1 सक । फलेहिं (फल) 3/21 . 1. अकर्मक धातुओं से बने भूतकालिक कृदन्त कर्तृवाच्य में भी प्रयुक्त ___ होते हैं। 55. ववसायफलं (ववसाय) - (फल) 1/1] । विहवो (विहव) 1/1 । विहवस्स. (विहव) 6/1 । य (प्र) = और । विहलनणसमुखरणं जीवन-मूल्य ] [ 49 For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [(विहल) वि-(अण)-(समुद्धरण) 1/1] । विहलुबरन [(विहल) +(उद्धरणेण)] [(विहल)वि-(उद्धरण) 3/1] । जसो (जस) 1/1। बसेन (जस) 3/1। मन (भण) विधि 2/1 सक। किं (कि) 1/1 सवि । न (भ) = नहीं । पज्जतं (पज्जत्त) भृकृ 1/1 अनि । 56. आत्ता (माढत्त) 1/2 वि । सप्पुरिसेहि (सप्पुरिस) 3/21 तुंगववसायविन्नहियरहि [ (तुग)-(ववसाय)-(दिन) वि-(हियम) 3/2)] । कम्जारंभा [ (कज्ज)+ (प्रारंभा) ] [(कज्ज)-(प्रारंभ) 1/2] | होहिति (हो) भवि 3/2। निष्फला (निष्फल) 1/2 वि । कह (अ)= किस तरह । चिरं कालं (क्रिवित्र) = दीर्घ काल तक । 57. विहवक्सए [(विहव)-(क्खन) 7/1] | वि (अ)=भी। वाणं (दाण) 1/1। माणं (माण) 1/1। बसणे (वसण) 7/1। धोरिमा (धीरिमा) 1/1। मरणे (मरण) 7/1। कज्जसए [(कज्ज)-(सत्र) 7/1]। प्रमोहो (अमोह) 1/1 वि। पसाहणं (पसाहण) 1/1। धीरपुरिसाणं [(धीर) वि-(पुरिस) 6/2]। 58. वारिद्दय (दारिद्द) 8/1 स्वार्थिक 'य' प्रत्यय । तुझ (तुम्ह) 6/1 स । गुणा (गुण) 1/2 1 गोविज्जंता (गोव) वक कर्म 1/21 वि (म) = भी। घोरपुरिसेहि [(धीर) वि-(पुरिस) 3/2] । पाहुणएसु (पाहुणप्र) 7/2 छणेसु (छण) 7/2। य' (अ)=ौर । वसणेसु (वसण) 7/21 पायग (पायड) 1/2। हुंति (हु) व 3/2 प्रक। 2. दो शब्दों को जोड़ने के लिए कभी कभी 'और' अर्थ का व्यक्त करने वाले अव्यय दो बार प्रयोग किए जाते हैं। 59. वारिद्दय (दारिद्द) 8/1 स्वार्थिक 'य' प्रत्यय । तुज्झ (तुम्ह) 4/1 स । नमो' (अ)= नमस्कार । जस्स (ज) 6/1 स । पसाएण (पसा) 3/1। एरिसी ( एरिस (पु)-एरिसी (स्त्री)) 1/1 वि। रिद्धी 1. 'नमो' के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। 50 ] [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( रिद्धि) 1 / 1 । पेच्छामि (पेच्छ) व 1 / 1 सक । सयललोए [ ( सयल) वि- (लोभ) 2/2] 1 ते (त) 1/2 । मह (भ्रम्ह ) 6 / 11 लोया (लोय) 1 / 21 नं (प्र) = नहीं । पेच्छति (पेच्छ) व 3 / 2 सक । · 2. कभी कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग द्वितीया विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है । ( हेम प्राकृत व्याकरण: 3 - 134 ) 60. जे (ज) 1/2 स । गुणिनो ( गुरिण ) 1/2 वि । वि ( अ ) = भी। माणिणो (मारिण) 1 / 2 वि । वियढसंमाणा [ ( वियक) वि - ( संमाण) 1/2] | बालि (दालिद्द) 8 / 1 | रे ( अ ) = हे । बिक्खण (वियक्खरण) 8 / 1 व 1 ताम (त) 4 / 2 स तुमं ( तुम्ह ) 1 / 1 स । सानुराओ [ ( स + अणुरानो) (स-प्रणुराश्र) 1 / 1 वि] । सि (अस) व 2 / 1 अक । 61. बीसंति (दीसंति) व कर्म 3 / 2 | । अनि । जोयसिद्धा [ ( जोय ) - (सिद्ध) भूकृ 1 / 2 अनि ] | अंजरसिद्धा [ ( अंजण) - (सिद्ध) भूकृ 1 / 2 अनि ] । वि (ध) = भी। के ( क ) 1/2 स वि ( अ ) = ही बारिद्दनोयसिद्धं [ ( दारिद्द) - (जोय ) - (सिद्ध) भूकृ 2 / 1 अनि ) ]। मं ( म्ह) 2 / 1 स | ते (त) 1/2 स । लोया (लोय) 1 / 2। न ( प्र ) = नहीं । पेच्छति (पेच्छ) व 3 / 2 सक । 62. संकुयइ (संकुय) व 3 / 1 प्रक। संकुयंते (संकुय) वकृ 7 / 1 | वियसर ( वियस ) व 3 / 1 एक । वियर्सतयम्मि ( वियस ) वकृ 'य' स्वार्थिक प्रत्यय 7 / 1 सूरम्मि (सूर ) 7 / 1। सिसिरे (सिसिर ) 7/1 रोरकुसुमं [ (रोर) वि- (कुडु ब) 1 / 1] | पंकयलीलं [ ( पंकय ) - ( लीला) 2 / 1] । समुब्वहइ (समुव्वह) व 3 / 1 सक 63. ओलग्गिओ (प्रोलग्ग ) भूकृ 1 / 1 । सि (अस) व 2 / 1 नक | धम्मम्मि (धम्म) 7 / 11 होज्ज (हो) विधि 2 / 1 अक । एन्हिं (प्र) = प्र | नारद (नरिद ) 8 / 1 । वच्चामो ( वच्च) व 1 / 2 सक । आलिहियकुंजरस्स [ ( श्रालिहिय) भूक - ( कु जर ) 6 / 1 ] । व ( अ ) = जैसे । तुह जीवन-मूल्य ] For Personal & Private Use Only [ 51 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( तुम्ह ) 6 / 1 भी स । पहु ( पहु) 8 / 1 | दाखं (दाण) 1 / 1 विय ( प्र ) = न ( प्र ) = नहीं । विट्ठ ( दिटू) भूकृ 1 / 1 अनि । = 64. भग्गे (भग्ग ) भूकृ 7 / 1 अनि । वि ( अ ) भी । बले' (बल) 7 / 1 । लिए ' ( वल) भूकृ 7 / 1। साहले ' (साह) 7 / 1। सामिए ( सामिश्र ) 7 / 1 । निरुच्छा (निरुच्छाह ) 7 / 1 वि । नियभुयविक्कमसारा [ ( निय) वि - (भुय) - (विक्कम ) - (सार) 5 / 1] थक्कंति ( थक्क) व 3 / 2 अक । कुलुग्गया [ (कुल) + (उग्गया ) ] [ (कुल) - ( उग्गय ) 1/2 वि ] | ( सुहड) 1 / 21 सुहा 1. यदि एक क्रिया के बाद दूसरी क्रिया हो तो पहली क्रिया में कृदन्त का प्रयोग होता है और यदि कर्तृवाच्य है तो कर्ता और कृदन्त में सप्तमी विभक्ति होगी, यदि कर्मवाच्य है तो कर्म और कृदन्त में सप्तमी विभक्ति होगी, कर्ता में तृतीया । श्रक । अंगं ( अंग ) 65. वियलs ( वियल) व 3 / 1 प्रक | धणं (धरण) 1 / 1 | न ( अ ) = नहीं । माणं (माग) 1 / 11 झिज्जइ (भिज्ज) व 3 / 1 1 / 1 पथावो (पाव) 1 / 1। रूवं ( रूव) चलइ (चल) व 3/1 अक । फुरणं (फुरण) 1 / 1। सिविरले (सिविरण) 7 / 1 । वि (प्र) 1 / 1 = भी। मर्णसिसत्या [ ( मसि ) व (सत्य) 6 / 2 ] । : 66. हंसो ( हंस) 1 / 1 सि (अस) व 2 / 1 अक । महासरमंडलो [ ( महासर) ] धवलो ( धवल) 1 / 1 । धवल ( धवल ) 8 / 1 किं - ( मंडण ) 1 / 1 (क) 1 / 1 सवि । तुज्झ ( तुम्ह ) 6 / 1। खलवायसाण [ (खल) वि 1 ( वायस) 6 / 2] | मझे (मज्झ ) 7 / 1 ता (प्र) = तो । हंसय ( हंस) 8/1 'य' स्वार्थिक प्रत्यय । कत्थ ( प्र ) = कैसे | पडियो भूकृ 1 / 1। ( पड) 1. अकर्मक क्रियाओं में भूकृ कर्तृ वाच्य में भी होता है । 67. हंसो ( हंस) 1/1 । मसाणमज्झे [ ( मसाण ) - ( मज्झ ) 7 / 1] । काओ 52 1 । । For Personal & Private Use Only [ वज्जालग्ग में Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (काम) 1/1। बइ (प्र) = यदि। बसइ (वस) व 3/1 प्रक। पंकयवरणम्मि [(पंकय)-(वण) 7/1] । तह वि (प्र) =तो भी। ह (अ) = निश्चय ही । च्चिय (प्र)=ही। बराओ (वराम) 1/1 वि । 68. बे (बे) 1/2 वि । वि (प्र) = ही । सपक्सा (सपक्ख) 1/2 वि । तह (अ) =उसी तरह । धवलया (धवल) 1/2 'य' स्वार्थिक प्रत्यय वि । सरवरणिवासा [(सरवर)-(रिणवास) 1/2] । तह वि (प्र)=तो भी। हु (प्र) = निश्चय ही । हंसबयाणं [(हंस)-(बय) 6/2] । जाणिजइ (जाण) व कर्म 3/1 सक । अंतरं (अंतर) 1/1। गल्यं (गरुय) 1/1 वि । 69. एक्केण (एक्क) 3/1 वि । य (अ) =ही। पासपरिदिएण [(पास) (परिट्ठि) 3/1 वि] । हंसेण (हंस) 3/1 । होइ (हो) व 3/1 प्रक। जा (जा) 1/1 सवि । सोहा (सोहा) 1/1। तं (ता) 2/1 स । सरवरो (सरवर) 1/1 । न (प्र) = नहीं । पावइ (पाव) व 3/1 सक । बहुएहि (बहुप) 3/2 वि । वि (अ) = भी । दिकसत्येहि [(ढिंक) (सत्थ) 3/2] । 70. माणससररहियाणं [(माणससर)-(रह) भूक 6/2] । जह (म) = जैसे । न (प्र) = नहीं । सुहं (सुह) 1/1 । होइ (हो) 3/1 । रायहंसाणं (रायहंस) 4/2 । तह (म) = वैसे ही । तस्स (त) 6/1 स । वि (प्र) = भी । तेहि (त) 3/2 स । विणा (अ)= बिना। तीरच्छंगा [(तीर)+(उच्छंगा)] [(तीर)-(उच्छंग) 1/2] । सोहंति (सोह) व 3/2 अक। 1. 'बिना' के योग में तृतीया, द्वितीया या पंचमी विभक्ति होती है । 71. वच्चिहिसि (वच्च) भवि 2/1 सक । तुमं (तुम्ह) 1/1 स । पाविहिसि (पाव) भवि 2/1 सक । सरवरं [(सर)-(वर) 2/1 वि]। रायहंस (रायहंस) 8/1। कि (किं) 1/1 सवि । चोज्जं (चोज्ज) 1/1। बीवन-मूल्य ] [ 53 For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणससरसारिक्वं [(माणससर)-(सारिक्ख) 1/1 वि] | पुषि (पुहवि) 2/1 । भमंतो (भम) वकृ 1/11 न (अ) = नहीं। 1. 'गति' अर्थ के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है। 72. सब्वायरेण [(सव्य) + (प्रायरेण)] [(सव्व) वि-(मायरेण) क्रिविम= पादरपूर्वक] । रपवह (रक्ख) विधि 2/2 सक । तं (त) 2/1 सवि । पुरिसं (पुरिस) 2/1 । जत्य (प्र) = जहाँ । जयसिरी (जयसिरि) 1/11 वसइ (वस) व 3/1 अक । अत्यमिय' (प्रत्थम) भूक 7/1। चंदिवे [(चंद)-(बिंब) 7/1] । ताराहि (तारा) 3/2। न (अ) = नहीं । कोरए (कोरए) व कर्म 3/1 सक पनि । जोहा (जोहा) 1/1। 1. मूल शब्द (किसी भी कारक के लिए मूल शब्द काम में लाया जा सकता है : वज्जालग्गं P459 गाथा 264)। 73. नइ (प्र) = यदि । चंदो (चंद) 1/11कि (कि) 1/1 सवि । बहुतारएहि [(बहु)-(तारप) 3/2] । बहुएहि (बहुम) 3/2। च (म): और । तेल (त) 3/1 स । विणा (प्र) = बिना। नस्स (ज) 6/1 स । पयासो (पयास) 1/1 | लोए (लोप) 7/1। अवलेह (धवल) व 3/1 सक । महामहीवट्ट [(महा) वि-(महीवट्ट) 2/1] 1. 1. "बिना' के योग में तृतीया, द्वितीया या पंचमी विभक्ति होती है। 74. चंबस्स (चंद) 6/1 | खमो (ख) 1/11 न (अ) = नहीं। ह (म) = किन्तु । तारयाण (तारय) 6/21 रिखी (रिद्धि) 1/1 । वि (म) = भी। तस्स (त) 6/1 स । ताणं (त) 6/2 स । गल्याण (गरुय) 6/2 वि । घडणपरणं [(चडण)-पडण) 1/1] | इयरा (इयर) 1/2 वि। उग (अ)= परन्तु । निच्चपग्यिा [(निच्च) = हमेशा-(पड) भृकृ 1/2] । य (अ)=ही। 75. न (अ)=नहीं। ह (म) =पाद पूर्ति । कस्स (क) 4/1 सवि । वि (अ) = भी । ति (दा) व 3/2 सक। षणं (धण) 2/1 | अन्नं (अन्न) 54 ] . . [. वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2/1 वि । देंतं (दा) व 2/11 पि (अ) = भी। तह (अ)=तथा। निवारंति (निवार) व 3/2 सक । अत्था (अत्थ) 1/2। किं (अ) = क्या । किविणत्या [ (किविण) वि-(त्थ) 1/2 वि ] । सत्थावत्था [(सत्थ) + (प्रवत्था)] [ (स-त्थ) वि-(प्रवत्था)] 1/1 ] । सुयंति (सुय) व 3/2 अक । व्व (अ) = की तरह । 76. निहणंति (निहण) व 3/2 सक। धणं (धण) 2/1। घरणीयलम्मि (धरणीयल) 7/1 | इय (अ)=इस तरह । जाणिऊण (जाण) संकृ । किविणजणा [ (किविण)वि-(जण) 1/2 ] | पायाले (पायाल) 7/1 । गंतव्वं (गंतव्व) विधिक 1/1 अनि । ता (अ) = उस (इस) कारण से । गच्छउ (गच्छ) विधि 3/1 सक। अग्गठाणं [ (अग्ग)-(ठाण) 2/1] । पि (अ) = भी। 77. करिणो (करि)6/1 । हरिणहरवियारियस्स [(हरि)-(णहर)-(वियार) भूक 6/1]। दीसंति (दीसंति) व कर्म 3/2 सक अनि । मोतिया (मोत्तिय)1/2 । कुंभे (कुभ) 7/1। किविणाण (किविण) 6/2 वि । नवरि (अ)= केवल । मरणे (मरण) 7/1 । पयड (पयड) 1/2 वि आगे संयुक्त अक्षर (च्चिय) आगे से दीर्घ स्वर हृस्व स्वर हुआ है। च्चिय (अ) = ही। हुंति (हु) व 3/2 अक । भंडारा (भंडार) 1/2 । 78. देमि (दा) व 1/1 सक । न (अ) = नहीं । कस्स (क) 4/1 सवि । वि (अ)=भी। जंपइ (जप) व 3/1 सक । उद्दारजणस्स [(उद्दार) वि-(जण) 4/1] । विविहरयणाई [(विविह) वि-(रयण) 2/2] । चाएण' (चाप) 3/1 । विणा (प्र)=बिना । वि (अ)=ही । नरो (नर) 1/1। पुणो वि (अ)=फिर भी। लच्छीइ (लच्छी) 3/1 । पम्मुक्को (पम्मुक्क) भूक 1/1 अनि । 1. 'बिना' के योग में तृतीया, द्वितीया या पंचमी विभक्ति होती है । जीवन-मूल्य ] [ 55 For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79. जीयं (जीय) 1 / 1। जलविदुसमं [ (जल) - ( बिंदु) - (सम) 1 / 1 बि] | उप्पज्जइ ( उप्पज्ज) व 3 / 1 ग्रक । जोव्वणं ( जोव्वरा.) 1 / 1। सह (घ) = साथ | जराए (जरा) 3 / 1 | वियहा ( दियह) 1 / 2 । क्यिहेहि ( दियह) 3 / 21 समा' (सम) 1 / 2 वि । न ( अ ) = नहीं । हुंति (हु) व 3 / 2 अक । कि (न) = क्यों । निछुरो ( निट्टूर ) 1 / 1 । वि लोभो (लोअ ) 1 / 1 1. 'सह', 'सम' के योग में तृतीया विभक्ति होती है । 80. विहति (विहड ) व 3 / 2 अक । सुया ( सुय) 1/2 बंधवा ( बंधव ) 1 / 2 । विहडे ( विहड ) व 3 / 1 अक । संचिओ (संचित्रो) भूकृ 1 / 1 अनि । अस्थी (प्रत्थ) 1 / 1 । एक्कं ( एक्क) 1 / 1 वि । नवरि ( अ ) = केवल । न ( अ ) = नहीं । विहडइ (विहड ) व 3 / 1 अक । नरस्स (नर) 6/11 पुग्वक्कयं [ ( पुor) क्रिवि = पूर्व में - (कक्यं) भूकृ 1 / 1 अनि ] | कम्मं (कम्म) 1/1 | 81. रायंगणम्मि [ (राय) + ( अंगण मि ) ] [ (राय) - ( अंगरण ) 7 / 1 ] । परिसंठियस्स ( परिसंठिय) भूकृ 6 / 1 अनि । जह ( 7 ) = जिस तरह । कुंजरस (कुंजर) 6 / 1। माहप्पं ( माहप्प ) 1 / 1 विझसिहरम्मि [ ( विझ) - ( सिहर ) 7 / 1 ] । न ( अ ) = नहीं । तहा ( अ ) = उसी तरह । ठालेसु (ठाण) 7 / 2 । गुणा ( गुण) 1 / 2 विसट्ट ति ( विसट्ट) व 3 / 1 | अक । 82. ठाणं ( ठाण) 2 / 1 । न ( अ ) = नहीं । मुयइ ( मुय) व 3 / 1 सक। धीरो (धीर) 1 / 1। ठक्करसंघस्स [ ( ठक्कुर ) - (संघ) 6 / 1]। बुटुबग्गस्स [ ( दुट्ठ) वि - ( वग्ग) 6 / 1] ठतं (ठा) व 2 / 1 'ठा' के आगे संयुक्त अक्षर (न्त ) के माने से दीर्घ स्वर ह्रस्व स्वर हुआ है । पि ( ) = किन्तु | जुज् (जुज्झ ) 2 / 1। ठाते (ठाण) 7 / 1 । जसं (जस) 2 / 1 | लहह ( लह) 1 3 / 1सक | 56 ] For Personal & Private Use Only [ वज्जालग्ग में Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83. जइ ( अ ) = यदि । नत्थि ( प्र ) = नहीं । गुणा ( गुरण) 1 / 21 ता (प्र) किं (कि) 1 / 1 सवि कुलेण (कुल) 3 / 1। गुणिणो (गुणी ) हु ( अ ) = भी। कब्जं ( कज्ज) 1 / 1 = तो। | 1 1 4 / 1 वि । न ( अ ) = नहीं । कुलमकलंकं [ ( कुलं) + (अकलंकं ) ] कुलं ' ( कुलं) 2 / 1 अकलंकं ' ( कलंक ) 2 / 1 वि । गुणवज्जियाण [ ( गुण) - ( वज्ज) भूकृ 6 / 2] rei (ror) 1 / 1 वि । चिय ( अ ) = निश्चय ही । कलंकं ( कलंक ) 1 / 1 । 1. कभी कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण: 3-137 ) 2. कभी कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया विभक्ति के स्थान पर पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) 84. गुणहीना [ ( गुण ) - ( हीण ) भूकृ 1 / 2 अनि ] | जे (ज) 1/2 सवि । पुरिसा ( पुरिस) 1/2 | कुलेण (कुल) 3 / 1 | गवं ( गव्व) 2 / 1 | वहंति ( वह) व 3 / 2 सक ते (त) 1 / 2। मूढा ( मूढ ) 1/2 वि । सुप्पो [ ( वंस) + (उप्पन्नो ) ] [ ( वंस) - ( उप्पन्न ) भूकृ 1 / 1 अनि ] । बि (प्र) = यद्यपि । धरण ( धणु ) 1 / 1 गुणरहिए ' [ ( गुण) - (रह) भूकृ 7 / 1] । नत्थि ( अ ) = नहीं । टंकारी ( टंकार ) 1 / 1 | 1. कभी-कभी तृतीया के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है (हेम प्राकृत व्याकरण : 3 - 135 ) 85. जम्मंतरं [ ( जम्म) + (अंतरं ) ] [ ( जम्म ) - ( अंतर 1 / 1 ] । न ( अ ) = नहीं । गदयं (गरुय ) 1 / 1 वि पुरिसल्स' (पुरिस) 6/11 गुणगणाव्हणं [ ( गुण) + ( गण ) + ( प्रायहणं ) ] ( धारहण) 1 / 1 ] मुताहलं ( मुत्ताहल ) 1 / 1 [ ( गुण) - ( गण ) - हि (घ) ही हु = 1. कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग तृतीया पर पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण : 3-134) जीवन-मूल्य ] For Personal & Private Use Only विभक्ति के स्थान [ 57 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( प्र ) = किन्तु । सिप्पिसंख्यं [ ( सिप्पि ) - (संपुङ) 1 / 1 स्वार्थिक 'य' प्रत्यय] । 1 86. खरफल्स [(खर) वि - ( फरुस ) 1 / 1 वि ] । सिप्पिड [ ( सिप्पि ) - (उड) 1 / 1] । रयणं ( रयण) 1 / 1 । तं (त) 1 / 1 स । होइ (हो) व 3 / 1 क । जं (ज) 1 / 1 सचि । अणग्धेयं ( अरणग्धेय ) 1 / 1 वि । जाईइ ( जाइ ) 3 / 1 । कि (कि) 1 / 1 सवि । व (प्र) = बतलाइए तो । (क) व कर्म 3 / 1 सक। गुरोहि ( गुरण) 3 / 2 । दोसा (दोस ) शिति (फुस ) व कर्म 3 / 2 सक | 1/2 87. जं (ज) 1 / 1 सवि । जाणइ (जाण) व 3 / 1 सके । भणई ( भरण) व 3 / 1 सक | जणो ( जरण) 1 / 11 गुणाण ( गुरण) 6 / 21 विहवाण ( विहव) 6 / 21 अंतरं (अंतर) 1 / 1 । गरुयं (गरुय) 1 / 1 वि । लग्भइ ( लब्भइ ) व कर्म 3 / 1 सक अनि । गुखेहि ( गुण) 3 / 21 विहवो (विव ) 1 / 1। बिहवेहि ( विहव) 3 / 2। गुणा ( गुण) 1 / 2। न ( अ ) = नहीं । घेप्पंति ( घेप्पंति) व कर्म 3 / 2 सक अनि । 88. पासपरिसंठिओ [ ( पास ) - ( परिसंठश्र) भूकृ 1 / 1 अनि ] | वि (घ) = भी हु (प्र) = पादपूर्ति । गुणहोले [ ( गुण ) - ( हीरण) भूकृ 7 / 1 अनि ] । 1 कि ( कि) 1 / 1 स । करेइ (कर) व 3 / 1 सक। गुणवंतो ( गुणवंत ) 1 / 1वि । जायंधयस्स [ ( जाय) + (अंधयस्स ) ] [ ( जाय) भूकृ - ( अंधय ) 4 / 1 वि]। बीवो ( दीव) 1 / 1 हत्थकओ [ ( हत्थ ) - ( कम ) भूक 1 / 1 अनि ] | निष्फलो (निष्फल ) 1 / 1 वि । च्चेय (प्र) = ही | 1. प्रश्नवाचक शब्दों के साथ वर्तमान काल का प्रयोग प्रायः भविष्यत् काल के अर्थ में होता है । 89. परलोयगया [ (परलोय ) - ( गय) भूकृ 6 / 2 अनि ] । पि (प्र) = भी। हु ( प्र ) = निश्चय ही । पच्छताओ ( पच्छत्तात्र) 1 / 1 | न ( प्र ) = नहीं | ताण (त) 6 / 2 सवि । पुरिसारणं ( पुरिस) 6 / 21 जाण (ज) 58 ] For Personal & Private Use Only [ वज्जालग्ग में Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (पय) 7/ 1 3/2 स । सु12 वि । तेहि । 6/2 सवि । गुणुच्छाहेणं [(गुण)+(उच्छाहेणं)] [(गुण)-(उच्छाह) 3/1] । जियंति (जिय) व 3/2 अक । वंसे (वंस) 7/1 । समुप्पन्न (समुप्पन्न) भूक 1/2 अनि । 90. सम्बणसलाहणिज्ने [(सज्जण)-(सलाह) विधिक 7/1] । पयम्मि (पय) 7/1 । अप्पा (अप्प) 1/1 | न (अ) = नहीं । गाविमो (ठाव) भूकृ 1/1 । जेहिं (ज) 3/2 स । सुसमत्वा (सुसमत्थ) 1/2 वि । जे (ज) 1/2 स । परोवयारिणो (परोक्यारि) 1/2 वि । तेहि (त) 3/2 स । वि (म) = तथा । किपि (म)= कुछ भी । 91. सुसिएन (सुस) भूक 3/1। निहसिएन (निहस) भूक 3/1 | वि (प्र) = भी। तह (म)= तथा । कह वि (म)= किसी न किसी प्रकार । हु (अ) =निश्चय ही । चंबणेण (चंदण) 3/1 । महमहियं (महमह) भूक 1/1 । सरसा (सरस) 1/1 वि । कुसुममाला [(कुसुम)-(माला) .. 1/1] जह (अ)= जिससे कि । जाया (जा) भूकृ 1/1। परिमनविलक्ला [(परिमल)-(विलक्खा) 1/1 वि] । 1. यहाँ भूक भाववाच्य में प्रयुक्त हुआ है। 92. एक्को (एक्क) 1/1 वि। चिय (अ) =ही। बोसो (दोस) 1/1 । तारिसस्स (तारिस) 6/1 वि । चंदणदुमस्स [(चंदण)-(दुम) 6/1] | विहिषडिओ [(विहि)-(घड) भूक 1/1] । जीसे (जी) 6/1 स । बुद्धभुयंगा [(दुट्ठ)-(भुयंग) 1/2] । खणं (म)=क्षण के लिए। पि (अ) = भी। पासं (पास) 2/1। न (म) = नहीं। मेल्लन्ति (मेल्ल) व 3/1 सक। 1. यहाँ 'जीसे' (स्त्रीलिंग) का प्रयोग विचारणीय है पुल्लिग का प्रयोग अपेक्षित है। । 93. बहुतरावराण [(बहु) वि-(तरु)-(वर) 6/2 वि] | मझे (मज्झ) ___7/1। चंबणविग्यो [(चंदण)-(विडव) 1/1] । भुयंगबोसेल [(भुयंग) जीवन-मूल्य ] [ 59 Jain Education -nternational For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( दोस) 3 / 1] । छिम्झइ (विज्झइ ) व कर्म 3 / 1 सके श्रनि । निरावराहो ( निरवराह ) 1 / 1 वि। साहु ( साहु) 1 / 1 प्रागे संयुक्त अक्षर (व्व) के प्राने से दीर्घ स्वर ह्रस्व स्वर हुआ है । व्य (प्र) = जैसे । असा संगेण [ ( साहु ) - ( संग ) 3 / 1] । 94. रयणायरेण ( रयणायर ) 3 / 11. रयणं ( रयण) 1 / 1 परिमुक्कं ( परिमुक्क) भूकृ 1 / 1 श्रनि । जइ वि (प्र) = यद्यपि । अमुणियगुरतेण [ ( प्रमुरिणय) भूक - ( गुण) 3 / 1] । तह वि (श्र) = तो भी । हु ( अ ) = भी। मरगयखंडं [ ( मरगय ) - ( खंड) 1 / 1]। जत्थ ( अ ) = जहाँ । गयं ( गय) भूकृ 1 / 1 श्रनि । तत्थ ( प्र ) = वहाँ । वि (प्र) = ही । मह (महग्घ) 1 / 1वि । ; । चिय ( अ ) = ही । गेण्हह (गेव्ह ) वि I 95. मा (प्र) = मत । दोसं ( दोस) 2 / 1 विधि 2 / 2 सक। विरले ( विरल ) 2 / 2 वि (न) = भी। गुणे ( गुण) 2 / 2 । पसंसह (पसंस ) विधि 2 / 2 सक | जणस्स (जरग ) 6 / 1 अक्खपउरो [ ( अक्ख ) - ( पउर) 1 / 1 वि] । उवही ( उवहि ) 1 / 1 | roes (भरण) व कर्म 3 / 1 सक अनि । रयणायरो ( रयरणायर) 1 / 1 ए (लो) 7/11 1 1 96. लच्छोइ ' ( लच्छी) 3 / 11 विणा ( अ ) = बिना । रयणायरस्स ( रथणायर ) 6 / 1। गंभीरिमा ( गंभीरीमा ) 1 / 1 । तह ( ) उसी तरह । च्चेव ( प्र ) = ही । सा (ता) 1 / 1 सवि । लच्छी ( लच्छी) 1 / 1 | तेण (त) 3 / 1 स | भरण ( भरण) विधि 2 / 1 सक । कस्स (क) 6 / 1 सवि । न ( अ ) = नहीं | मंदिरं ( मंदिर ) 2 / 1 । पत्ता (पत्ता) भूकृ 1 / 1 अनि । 1. 'बिना ' के योग में तृतीया, द्वितीया या पंचमी विभक्ति होती है । 97. वडवाणलेण (वडवागल) 3 / 1। गहिम्रो ( ग ) भूकृ 1 / 1 | महिओ (मह) भूकृ 1 / 1 य (प्र) और सुरासुरेहि [ ( सुर ) + (सुरेहि ) ] = 60 ] For Personal & Private Use Only [ वज्जालग्ग में ده Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 [(सुर)- (प्रसुर) 3/2] । सबलेहि (सयल) 3/2 वि । लच्छी ( लच्छी) 3 / 11 उबहि' ( उवहि ) मूलशब्द । मुबको (मुक्क) भूकृ 1 / 1 प्रनि । पेच्छह (पेच्छ) विधि 2/2 सक। गंभीरिमा ( गंभीरिमा ) 1 / 1 । तस्स (त) 6/1 स । 1. किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जाता है । (पिशल : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) = निरंतर = 98. यहि (रमण ) 3 / 2 | निरंतरपुरिएहि [ (निरंतर) (पूर ) भूकृ 3 / 2 ] । रयणायरस्त ( रयरणायर) 6 / 11 न ( प्र ) = नहीं । हु ( प्र ) = भी। गब्बो ( गव्व) 1 / 1 | करिणो ( करि ) मुत्तालसंसए [ ( मुत्ताहल ) - ( संस ) मयविमला [ (मय ) - (विब्भला) 1 / 1 6/1 7 / 1] वि ] जीवन-मूल्य ] । वि ( अ ) = भी। | विट्ठी (दिट्ठि) 1 / 1 । 99. रयणाय रस्स ( रयणायर) 6 / 11 न ( अ ) = नहीं । हु अक । तुच्छिमा ( तुच्छिमा ) रयरोह ( रयरण ) 3 / 2 1 / 1 । निग्गएहि | तह वि (प्र) = । = होइ (हो) व 3 / 1 ( निग्गन) भूकृ 3 / 2 अनि तो भी । हु ( अ ) = किन्तु | चंदसरिच्छा [ ( चंद) - ( सरिच्छ) 1 / 2 वि ] । बिरला ( विरल ) 1 / 2 वि । रयणायरे [ ( रयणायर) 7 / 1 । रयणा ( रयण) 1 / 21 3 / 1] 100. जइ वि (प्र) = यद्यपि । हु ( प्र ) = ही । कालवसेणं [ ( काल ) - ( वस) ससी (ससि) 1 / 1 | समुद्दाउ ( समुद्द) 5 / 11 कह वि (ध) = किसी तरह । विच्छुडिओ ( विच्छुडिय) 1 / 1 वि तह वि (अ). = | आणंद (प्राणंद) (त) 6 / 1 स । पयासो ( पयास) 1 / 1 2 / 1 | कुणइ ( कुरण) व 3 / 1 । दूरे (प्र) = दूर । वि (श्र) = भी। For Personal & Private Use Only ( प्र ) = भी | [ 61 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बज्जालग्ग में जीवन-मूल्य एवं बज्जालग्ग का गाथानुक्रम 65 . .. पृष्ठ 217 21 . .92 गावा वज्जालग्ग 'गाया .वज्जालग्ग गाथा बज्जालग्ग क्रम गाथा संख्या क्रम गाया संख्या क्रम गाथा संख्या 1 6 206239 90.1 2 . 15.1 21 6 3 पृष्ठ 224 पृष्ठ 216 2264.3 40. 90.4 | 18.1 पृष्ठ 220 पृष्ठ 225 90.5 24 66 पृष्ठ 225 31 68 91 6 33 71 . 7 34- 27 12.5 72.5 44 4494 8 . 36 पृष्ठ 222 45 100 9 37 . .28 14 . 46. 101 1038 29 75 47 - 102 11 . 40 7648 103 1241 31 7749 104 42 . 32 19 5 0 105 1444 . .33 8051 • 108 15 45 . 34 82 52 113 16 47358553 114 1748 115 1855378755 116 19 ...56 . 388856 117 36 86 'वज्जालग्ग-जयवल्लभ भूमिका प्रादि-प्रो. माधव वासुदेव पटवर्धन, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, महमदाबाद-9 (1969) 62 ] [ वयालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा क्रम 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 वज्जालग्ग गाथा संख्या 119.1 पृष्ठ 227 138 139 140 141 146 154 163 164 257 258 260 262 263 263.1 पृष्ठ 233 जीवन-मूल्य ] गाया क्रम 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 • वज्जालग्ग गाथा संख्या 264 266 267 579 580 581 585 665 672 67.8 682 685 686 687 688 689 691 For Personal & Private Use Only गाया क्रम 89 90 91 92 9'3 94 95 96 97 98 99 100 वज्जालग्ग गाथा संख्या 692 705 728 731 732 746 748 750 751 753 755 757 [ 63 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मवाडा सहायक पुस्तकें एवं कोष 1. वज्जालग्ग : जयवल्लभ संपादक : प्रो. माधव वासुदेव पटवर्धन (प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद-9) 2. हेमचन्द प्राकृत : व्याख्याता श्री प्यारचन्दजी महाराज . .ज्याकरण भाग 1-2 (श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय, . मेवाडी बाजार, ब्यावर-राजस्थान) 3. प्राकृत भाषाओं का : डा. पार. पिशल (बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना) 4. अभिनव प्राकृत : डा. नेमिचन्द्र शास्त्री व्याकरण (तारा पब्लिकेशन्स, वाराणसी) .. 5. प्राकृतमार्गोपदेशिका : श्री बेचरदास जीवराज दोशी (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) 6. संस्कृत निबन्ध-वशिका : श्री वामन शिवराम प्राप्टे (रामनारायणलाल बेनीमाधव, इलाहाबाद) 7. प्रौढ़-रचनानुवाद- : डा. कपिलदेव द्विवेदी कौमुदी (विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी) 8. पाइम-सह-महण्णवो : पं. हरगोविन्ददास त्रिकमचंद सेठ (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी) 9. संस्कृत-हिन्दी कोष : वामन शिवराम प्राप्टे (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) 10. Sanskrita : M. Monier-William English Dictionary (Munshiram Manoharlal, New Delhi) 11. बृहत् हिन्दी कोष : सम्पादक : कालिका प्रसाद प्रादि (ज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस) *** 64 ] [ वज्जालग्ग में For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ USSON >>JUT PUT PUTU PUT For Personal & Private Use Only inelibrary ng