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जयवल्लभ-वज्जालगं के मंगलाचरण (पद्य 1) में "सम्वन्नुवयणपंकयणिवासिणि परमिऊण सुयदेवि" सर्वज्ञ के मुख कमल में निवास करने वाली "श्रुतदेवी" शब्दों से स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ के संग्रहकार "जयवल्लभ" जैन मुनि थे। इस ग्रन्थ के टीकाकार बृहद्गच्छीय श्री रत्नदेव के मतानुसार श्वेताम्बरशिरोमणिर्जयवल्लभो नाम कविः" जयवल्लभ श्वेताम्बर परम्परा के थे।
प्रो. माधव वासुदेव पटवर्धन ने अपनी प्रस्तावना में जयवल्लभ का समय निर्धारण करते हुए लिखा है (पृ. 18 से 23)-वाक्पतिराज (750 ई.) की एक गांथा वज्जालग्गे में संगृहीत है एवं इसकी टीका का रचना काल वि.सं. 1393 ई. 1336 है, अत: जयवल्लभ का समय ई. 750 से 1336 के मध्य का है। जबकि विश्वनाथ पाठक ने (भूमिका पृ. 3 से 6) ग्रन्थ की अपभ्रश बहुलं भाषा को ध्यान में रख कर इसका रचना काल 1123 ई. और 1336 ई. के बीच का माना है। तथापि यह निश्चित है कि यह ग्रन्थ एक सहस्राब्दी पूर्व का तो है ही।
वज्जालग्ग-प्रो. एच. डी. वेल्हणकर ने जिनरत्न कोष (पृ. 236 एवं 340) में इस ग्रन्थ के कई माम-पर्याय दिये हैं-वज्रालय, विज्जाहल, वज्जालय, विद्यालय और पद्यालय । किन्तु, इसका शुद्ध नाम "वज्जालग्गं" ही है; जिसका संस्कृत रूप बनता है "व्रज्यालग्न" । इस ग्रन्थ के अनुवादक विश्वनाथ पाठक के अनुसार 'वज्जा'-व्रज्या का अर्थ है पद्धति और 'लग्ग' लंग्न का अर्थ है प्रकरण अधिकार । "ज्यामिः लग्नं निबद्ध काव्यं व्रज्यालग्नम् । अर्थात् प्रकरणबद्ध रचना या प्रज्याबद्ध शैली में रंचा गया व्रज्यालग्नं कहलाता है। प्रस्तुत संग्रह में गाथायें प्रकरण के अनुसार रखी गई हैं, अतः "वज्जालग्गं" नाम ही उपयुक्त है ।
प्रकरण एवं गाथा संख्या-रत्नदेव की टीका में "गाहादार" की
1. वज्जालग्गं : भूमिका पृ. 1 से 3
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