________________
अन्तिम गाथा में इसको "सत्तसइय" बताया है । अतः संभव है कि प्रारम्भ में इसमें केवल सात सौ गाथानों का ही संग्रह किया गया हो । कालान्तर में इसके कलेवर में वृद्धि होती रही हो । पहले मूल ग्रन्थ में 48 वज्जायें और सात सौ गाथायें ही हों । इस समय इसमें 95 वज्जायें और 795 गाथायें पाई जाती हैं । विभिन्न प्रतियों की अतिरिक्त गाथाओं को मिला देने पर यह संख्या बढ़कर 996 हो जाती है ।
1
ग्रन्थ रचना का उद्देश्य - वज्जालग्गं की रचना / संकलन के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए विश्वनाथ पाठक ने लिखा है :- " संग्रहकार के संग्रह का उद्देश्य भले ही त्रिवर्ग रहा हो, मुझे इस रचना का उद्देश्य कुछ अन्य ही प्रतीत होता है, जो किसी भी दशा में कम महत्वपूर्ण नहीं है । तीसरी वज्जा में प्राकृत काव्यों, प्राकृत कवियों और प्राकृत काव्यों के विदग्ध पाठकों को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया गया है। देशी शब्दों से रचित, मधुर शब्दों और अक्षरों में निबद्ध स्फुट - गम्भीर गूढार्थ प्राकृत काव्यों को पढ़ने का उपदेश दिया गया है । इतना ही नहीं, यह भी कहा गया है कि ललित, मधुराक्षरयुक्त, युवतीजनवल्लभ, शृंगारपूर्ण प्राकृत काव्यों के रहते कौन संस्कृत पढ़ सकता है ? इससे स्पष्ट परिलक्षित होता है कि ग्रंथकार बज्जालग्गं के माध्यम से प्राकृत भाषा और साहित्य का प्रचार और प्रसार चाहते थे । वस्तुत: इसी उद्द ेश्य को समक्ष रखकर उन्होंने इतस्ततः बिखरी प्राकृत की अमूल्य गाथाओं को संगृहीत कर एक ऐसा मनोरम काव्य-ग्रन्थ बनाया, जिसकी सरसता से आकृष्ट होकर संस्कृत काव्य-प्रेमी भी संस्कृत छोड़ प्राकृत काव्य का ही रसास्वादन करें । वज्जालग्गं की सरसता को देखते हुए हम निःसंकोच कह सकते हैं कि संग्रहकार अपने उद्देश्य में पूर्ण सफल हैं । इसके अतिरिक्त वज्जालग्गं के संग्रह का अन्य भी हेतु है । उस युग में धीरे-धीरे अपभ्रंश और प्राकृत को छोड़कर सामान्य जन लोकभाषा काव्य की ओर प्राकृष्ट हो रहे थे । ऐसी दशा में प्राकृत की श्रेष्ठ एवं प्रसिद्ध रचनाओं की सुरक्षा का भी प्रश्न था । संग्रहकार की सूक्ष्म दृष्टि इस
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
[ ग
www.jainelibrary.org