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सिद्धांत लागू नहीं किये जाते । यही कारण है कि आज का सामाजिक वातावरण विषाक्त हो गया है। आज हिंसा बहुत बढ़ गई है। धर्म हिंसा के विरोध में है, पर हिंसा से व्यावसायिक लाभ है। अहिंसा को औपचारिक रूप से मानते हुए भी रक्त से सने हुए अर्थ को प्राप्त करने में भी कोई झिझक नहीं है । औपचारिक अहिंसक ऐसा कार्य करें तो इससे अधिक विडम्बना की क्या बात हो सकती है ? अपरिग्रह एक बड़ा सिद्धांत है। फिर भी परिग्रह और अधिक व्याप्त होता जा रहा है। अनेकान्तवाद विभिन्न विचारों और दृष्टियों की सम्भावनाओं को स्वीकारता है। पर असहिष्णुता और कठमुल्लावाद सभी सम्प्रदायों और धर्मों में बढ़ा है। कषाय रहित जीवन शुद्ध जीवन है पर, आज के जीवन में काम, क्रोध, मद, लोभ ईर्षा और मायावीपन अधिक है और ये दुगुण ही आज सम्मानित दर्शन के रूप में मान्य होते जा रहे हैं। इन परिस्थितियों में धर्म एवं व्यवहार में एकरूपता लाने की विशेष आवश्यकता है।
आज के इस दूषित वातावरण को बदलने के लिये धर्म और विज्ञान के सम्मिश्रण को आवश्यकता है । अर्वाचीन विज्ञान के साथ कुछ प्राचीन सिद्धांत स्वतः हो पुनर्स्थापित हो रहे हैं । अाज अहिंसा को सबसे बड़ा समर्थन विज्ञान से मिल रहा है। विश्व के संसाधनों का कुछ दशकों में अतिदोहन किया गया है, इसलिये आज अपरिग्रह के प्रति सम्मान की भावना व्यक्त को जारही है। विश्व में प्राज व्याप्त असहिष्णुता के कारण ही सहिष्णुता की आवश्यकता अधिकाधिक स्वीकारी जा रही है। ऐसे वातावरण में मानवीय जीवन मूल्यों को प्रस्तुत करने एवं पुनर्स्थापन करने की संभावनायें और बढ़ी हैं।
आवश्यकताओं और संभावनाओं को देखते हुए जीवन-मूल्यों को प्रस्तुत करने का यह बहुत छोटा सा प्रयास है। इसके लिये मैं डॉ. कमलचन्द जी सोगाणी के प्रति आभारी हूँ।
डी. पार. मेहता
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