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________________ प्रस्तावना यह सर्व विदित है कि मनुष्य अपनी प्रारंभिक अवस्था से ही रंगों को देखता है, ध्वनियों को सुनता है, स्पर्शों का अनुभव करता है, स्वादों को चखता है, तथा गंधों को ग्रहण करता है । इस तरह उसकी सभी इन्द्रियाँ सक्रिय होती हैं । वह जानता है कि उसके चारों अोर पहाड़ हैं, तालाब हैं, वृक्ष हैं, मकान हैं, मिट्टी के टीले हैं, पत्थर हैं इत्यादि । आकाश में वह सूर्य, चन्द्रमा और तारों को देखता है । ये सभी वस्तुएं उसके तथ्यात्मक जगत का निर्माण करती हैं इस प्रकार वह विविध वस्तुओं के बीच अपने को पाता है । उन्हीं वस्तुओं से वह भोजन, पानी, हवा आदि प्राप्त कर अपना जीवन चलाता है । उन वस्तुओं का उपयोग अपने लिए करने के कारण वह वस्तु जगत का एक प्रकार से सम्राट बन जाता है । अपनी विविध इच्छाओं की तृप्ति भी बहुत सीमा तक वह वस्तु जगत से ही कर लेता है । यह मनुष्य की चेतना का एक आयाम है। धीरे-धीरे मनुष्य की चेतना एक नया मोड़ लेती है। मनुष्य समझने लगता है कि इस जगत में उसके जैसे दूसरे मनुष्य हैं जो उसकी तरह हँसते हैं, रोते हैं, सुखी-दुखी होते हैं। वे उसकी तरह विचारों, भावनाओं और क्रियाओं की अभिव्यक्ति करते हैं । चूकि मनुष्य अपने चारों ओर की वस्तुओं का उपयोग अपने लिए करने का अभ्यस्त होता है, अतः वह अपनी इस प्रवृत्ति के वशीभूत होकर मनुष्यों का उपयोग भी अपनी आकांक्षाओं और आशाओं की पूर्ति के लिए ही करता है । वह चाहने लगता है कि सभी उसी के लिए जीएँ। उसकी निगाह में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004172
Book TitleVajjalagga me Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages94
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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