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________________ 43. कार्य को फूर्ती से करो, प्रारंभ किए गए कार्य को किसी तरह भी शिथिल मत करो, (क्योंकि) प्रारंभ किए गए (तथा) फिर शिथिल किए गए कार्य सिद्ध नहीं होते हैं । 44. सज्जन (जिसका) वैभव नष्ट हुअा (है) अरण्य का ही सहारा लेता है। (अपनी पूर्ति के लिये) वह दूसरे से याचना नहीं करता है। (वह) अति-मूल्यवान आत्म-सम्मान रूपी लाल के मरण (काल) में भी नहीं बेचता है। 45. खल-चरण में झुककर जो त्रिभुवन भी उपार्जित किया जाता है उससे क्या लाभ है ? सम्मान से जो तृण भी उपार्जित किया जाता है, वह सुख उत्पन्न करता है। A जो बड़ी विपत्ति से अति पीड़ित भी दूसरे से याचना नहीं करते हैं, वे आत्म-सम्मानी (हैं) तथा स्थिर-प्रयत्न (प्रयत्नों में स्थिर) (है)। (अतः) वे धन्य हैं (और) महान (हैं), उनके लिए नमस्कार। 47. प्रज्ञावान का मन (जीवन की) अंतिम दशाओं में भी ऊँचा ही होता है। (ठीक ही है) अस्त होते हुए सूर्य की किरणें भी ऊपर की ओर ही प्रकट होती हैं। 48. तब तक (ही) मेरु-पर्वत ऊँचा होता है, तब तक (ही) समुद्र दुलंघ्य होता है, तब तक ही कार्यों में गति कठिन होती है, - जब तक धीर (उनको) स्वीकार नहीं करते हैं। जीवन-मूल्य 1 [ 17 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004172
Book TitleVajjalagga me Jivan Mulya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages94
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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