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75.
76.
( कृपरण) किसी के लिए भी धन नहीं देते हैं । तथा (धन) देते हुए दूसरे (व्यक्ति) को भी (वे) रोकते हैं। क्या ( हम कहें कि) कृपरण- स्थित (कृपणों के द्वारा संचित किए हुए) रुपये - पैसे अपने आप में स्थित ( व्यक्ति की ) दशा की तरह सोते हैं ( निष्क्रिय होते हैं) ।
77. सिंह के नखों द्वारा चीरे हुए हाथी के गण्डस्थल पर (तो) मोती देखे जाते हैं, किन्तु कृपरणों के भण्डार मरने पर ही प्रकट होते हैं ।
79.
कृपरण लोग भूमितल में धन को गाड़ते हैं । इस तरह सोचकर (कि ) ( उनके द्वारा) पाताल में पहुँचे जाने की संभावना है । इस कारण से (धन) भी आगे स्थान को ( पाताल में ) जाना चाहिए ।
78. ( यद्यपि ) ( कृपरण) (कभी) नहीं कहता है, "मैं किसी भी श्रेष्ठ जन के लिए विविध रत्नों को देता हूँ", फिर भी ( ठीक ही है ) ( लक्ष्मी के) त्याग के बिना ही मनुष्य लक्ष्मी के द्वारा परित्यक्त होता है ।
80.
जीवन जल-बिन्दु के समान ( क्षरण - भंगुर ) ( है ) | यौवन बुढ़ापे के साथ उत्पन्न होता है । दिवस दिवसों के समान नहीं होते हैं। ( फिर भी ) मनुष्य निष्ठुर क्यों है ?
पुत्र अलग हो जाते हैं, बंधु ( भी ) अलग हो जाते हैं, संचित अर्थ भी अलग हो जाता है, ( किन्तु ) मनुष्य का केवल एक पूर्व में किया हुआ कर्म अलग नहीं होता ।
जीवन-मूल्य ]
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