Book Title: Vajjalagga me Jivan Mulya
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 62
________________ 94. समुद्र के द्वारा नहीं जाने हुए गुणों के कारण (समुद्र के द्वारा) रत्न यद्यपि परित्याग किया गया है, तो भी पन्ने का टुकड़ा जहाँ भी गया वहाँ ही मूल्यवान (सिद्ध हुआ है)। 95. (किसी भी) मनुष्य के दोष को ही ग्रहण मत करो, (उसके विरल गुणों की (भी) प्रशंसा करो । बहुत अधिक रुद्राक्ष (युक्त) समुद्र भी लोक में रत्नाकर कहा जाता है। 96. लक्ष्मी के बिना (भी) रत्नाकर की गंभीरता उसी तरह ही (बनी हुई है), (किन्तु) कहो, वह लक्ष्मी उसके (समुद्र के) बिना किसके घर नहीं पहुंची? 97. (यद्यपि) समुद्र वाडवानल (भीतरी भाग) के द्वारा असा हुआ (है), सकल सुर-असुरों द्वारा मथा गया (है) और लक्ष्मी के द्वारा त्यागा गया (है), (फिर भी) उसकी गंभीरता को देखो। 98. रत्नों से निरन्तर भरे हुए भी रत्नाकर के गर्व नहीं है, (किन्तु) मोती के संशय में भी हाथी की मद में तल्लीन दृष्टि (होती है)। 99.. बाहर निकले हुए रत्नों के कारण भी समुद्र के तुच्छता नहीं होती है, किन्तु फिर भी (यह कहा जा सकता है कि) समुद्र में थोड़े (ही) रत्न चन्द्रमा के समान होते हैं (जो समुद्र के ‘लिए मानन्द करते हैं)। 100. यद्यपि विधि के वश से ही चन्द्रमा किसी प्रकार समुद्र से बिछड़ा हुआ है, तो भी उसका प्रकाश दूर होने पर भी - (समुद्र के लिए) आनन्द करता है। जीवन-मूल्य ] . . [ 33 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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