Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ दुर्लभ है - मनुष्य भव, धर्म का श्रवण, धर्म पर श्रद्धा और संयम साधना में पुरुषार्थ, चार गति रूप संसार में मानव भव की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। मानव भव मिल जाने पर भी आगे कहे जाने वाले क्रमशः सुधर्म, उस पर पूर्ण श्रद्धा और उसके पश्चात् भगवान् की आज्ञानुसार संयम साधना बहुत ही कठिन है, दुर्लभ है। अतएव मनुष्य भव की महत्ता को समझ कर पाये हुए मनुष्य भव को शेष तीन बातों में पुरुषार्थ कर सफल करना चाहिये। - चौथा अध्ययन - जीवन असंस्कृत - इस अध्ययन की शुरूआत हुई हैजीवन की क्षण भंगुरता से 'असंखयं जीविय मा पमायए' अर्थात् जीवन संस्कार रहित यानी क्षणिक है एक बार टूटने पर पुनः जोड़ा नहीं जा सकता। व्यक्ति सोचता है अभी तो मेरी बाल्य अथवा, युवावस्था है, धर्म तो वृद्धावस्था आने पर कर लूंगा। पर उसे पता नहीं कि वृद्धावस्था आयेगी अथवा नहीं? अतः धर्म कार्य में प्रमाद मत कर। सतत् जागरूक रह कर धर्माचरण करते रहना चाहिए। जो जीव धर्माचरण पिछली अवस्था के लिए छोड़ देता है वह पहले के समान पिछली अवस्था में भी धर्माचरण नहीं कर सकता। अन्त में आयु के समाप्त होने पर पश्चात्ताप के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं लगता है। पांचवां अध्ययन - सकाम अकाम मरण - प्रत्येक जीव के जीवन के साथ मृत्यु का चोली दामन का सम्बन्ध है। न चाहने पर भी मृत्यु निश्चित है अतः जीवन को जीने के साथ-साथ मरण की भी कला आना आवश्यक है। जो जीव यह कला जानता है, वही हंसते-हंसते मरण को वरण कर सकता है और उसी का मरण सकाम यानी पण्डित मरण कहा गया है। सकाम मरण विवेक युक्त विषय-कषाय से रहित समाधि युक्त होता है। सकाम मरण में साधक शरीर और आत्मा को भिन्न मानता हुआ मृत्यु का महोत्सव के रूप में स्वागत करता है। उसका एक मात्र ध्येय अपने निज स्वरूप को प्राप्त करना है। क्योंकि आत्मा अविनाशी, अजर-अमर, विशुद्ध चैतन्य रूप है। जीव ने विषय-कषाय के आधिन होकर तो आज तक अनन्त जन्म मरण किये हैं। अब ज्ञान का प्रकाश हुआ है। अतः पण्डित - सकाम मरण प्राप्त कर जीवन को सफल बना लेना चाहिए। ... छहा अध्ययन - क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय - निर्ग्रन्थ शब्द जैन परम्परा का एक विशिष्ट शब्द है जो जैन साधु के लिए प्रयुक्त होता है। ग्रन्थ का अर्थ गांठ होता है। जैन साधु आभ्यन्तर और बाह्य दोनों ग्रन्थियों से मुक्त होता है। राग-द्वेष आदि कषाय भाव आभ्यन्तर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 430