Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 7
________________ *******★★★★★★★★: उत्तराध्ययन सूत्र प्रभु महावीर की अन्तिम देशना होने से इसका महत्त्व वैसे भी अत्यधिक हो जाता है क्योंकि परिवार में भी प्रायः देखा जाता है कि पुत्र अपने पिताश्री द्वारा दी गई अन्तिम शिक्षा का पालन करने का विशेष ध्यान रखते हैं। इसी प्रकार परमपिता भगवान् महावीर द्वारा यह अन्तिम उपदेश. हम संसारी जीवों के लिए अमृत तुल्य है । इस सूत्र में धर्मकथानुयोग का ही नहीं, अपितु चारों अनुयोगों का सुन्दर मधुर संगम है। यह भगवान् की वाणी का प्रतिनिधित्व करने वाला आगम है। इस आगम के सूक्त वचन इतने संक्षिप्त सारपूर्ण और गहन हैं कि वे निःसंदेह साधक जीवन को निर्वाणोन्मुख करने में गागर सागर का काम करने वाले हैं। इसे यदि साधक जीवन की डायरी कह दिया जाय तो भी अतिश्योक्ति नहीं है। अहंकार शून्यता विनय प्रथम अध्ययन प्रस्तुत सूत्र का प्रारम्भ विनय - किया गया है। जो जैन दर्शन के आध्यात्मिक जीवन की मूल भूमिका है। विनय की पृष्ठभूमि पर ही श्रमणाचार और श्रावकाचार का विशाल महल टिका हुआ है। इसलिए गुरुदेव शिष्य को सर्व प्रथम विनय का स्वरूप बतलाते हुए फरमाते हैं कि किस प्रकार शिष्य को गुरुजनों के समक्ष बैठना, उठना, बोलना, चलना, उनके अनुशासन में रहकर ज्ञानार्जन आदि का विवेक रखना चाहिये। अविनीत शिष्य के लिए सड़े कानों वाली कुत्ती एवं सुअर का उदाहरण देकर सभी जगह अनादर और उसके दुःखदायी फल को बतलाया गया। वहीं दूसरी ओर विनीत शिष्य के लिए इस अध्ययन की अन्तिम गाथा में देव, गन्धर्व और मनुष्यों से पूजित शाश्वत सिद्धि गति का प्राप्त होना बतलाया है। [6] - परीषह विजय दूसरा अध्ययन विनय की सशिक्षा के बाद दूसरे अध्ययन परीषह विजय में साधक जीवन में प्रवेश करने के पश्चात् अनेक कष्ट और परीषह आने वाले हैं उन्हें समभावों से कर्मों की निर्जरा का हेतु समझ कर सहन करना है । संयम को रणभूमि कहा गया है अतएव साधक को साधना पथ पर गति करते हुए अन्तर बाह्य परीषहों के आने पर उन्हें समभावों के साथ संघर्ष करते हुए, आगे बढ़ते हुए सफलता हासिल करनी है । इस रणभूमि में सफलता प्राप्त करने वाला ही सच्चा साधक कहलाता है। Jain Education International - - तीसरा अध्ययन चार बातों की दुर्लभता - इस अध्ययन का प्रारम्भ 'चत्तारि परमंगोणि - दुल्लहाणीह जंतुणों' से हुआ है। जीव को चार परम अंग अत्यन्त - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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