Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01 Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 5
________________ 14] ************************************************************ अथवा उससे अधिक के ज्ञाता होते हैं। इसलिए वे सूत्र और अर्थ की दृष्टि से अंग साहित्य के पारंगत होते हैं। अतएव वे जो भी रचना करते हैं, उसमें किंचित् मात्र भी विरोध नहीं होता। जो बात तीर्थंकर भगवन्त फरमाते हैं, उसको श्रुत केवली (स्थविर भगवन्त) भी उसी रूप में कह सकते हैं। दोनों में अन्तर इतना ही है कि केवली सम्पूर्ण तत्त्व को प्रत्यक्ष रूप से जानते हैं, जबकि श्रुत केवली अपने विशिष्ट क्षयोपशम एवं श्रुतज्ञान के द्वारा परोक्ष रूप से जानते हैं। उनके द्वारा रचित आगम साहित्य इसलिए भी प्रामाणिक होते हैं, क्योंकि वें नियमतः सम्यग्दृष्टि होते हैं। अतएव उनके द्वारा रचित आगम-ग्रन्थ को उतना ही प्रामाणिक माना जाता है, जितने गणधर कृत अंग सूत्र। जो बत्तीस आगम हमारी स्थानकवासी परम्परा में मान्यता प्राप्त है। उनका वर्गीकरण समय-समय पर विभिन्न रूप में किया गया है। सर्वप्रथम इन्हें अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है। अंग प्रविष्ट श्रुत में उन आगमों को लिया गया है जिनका निर्वृहण गणधरों द्वारा सूत्र रूप में हुआ है अथवा गणधर भगवन्तों द्वारा जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर जो तीर्थंकर प्रभु द्वारा समाधान फरमाया गया हो। अंग बाह्य श्रुत वह है जो स्थविर कृत. हो अथवा गणधरों के जिज्ञासा प्रस्तुत किये बिना तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित हो। समवायांग और अनुयोगद्वार सूत्र में आगम साहित्य का केवल द्वादशांमी के रूप में निरूपण हुआ है। तीसरा वर्गीकरण विषय के हिसाब से चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग एवं धर्मकथानुयोग के रूप में हुआ है। इसके पश्चात्वर्ती साहित्य में सबसे अर्वाचीन है उनमें ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद और बत्तीसवां आवश्यक सूत्र के रूप में वर्तमान में बत्तीस आगमों का वर्गीकरण किया गया है। ११ अंग - आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथांग, उपासकदशांग, अन्तकृतदशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण एवं विपाक सूत्र। १२ उपांग - औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, निरियावलिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा सूत्र। ४ छेद - दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ सूत्र। ४ मूल - उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नंदी और अनुयोगद्वार सूत्र। १ आवश्यक सूत्र कुल ३२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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