Book Title: Upadhyay Yashovijayji Swadhyay Granth
Author(s): Pradyumnavijay, Jayant Kothari, Kantilal B Shah
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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પ્રીતિરતિકાવ્ય' | ર૩૧
प्रकार से १ से २५ पद्य पर्यन्त प्रीति का वक्तव्य, २६ से ४८ पद्यों में रति का वक्तव्य, ४९ से७१ पद्य पर्यन्त प्रीति का वक्तव्य, ७२ से ८८ पद्य पर्यन्त रति का वक्तव्य, ८९ से १०१ पद्य पर्यन्त प्रीति का वक्तव्य, १०२ से १०६ पद्य पर्यन्त रति का वक्तव्य है। इसमें जहां-जहां प्रीति का वक्तव्य है सो स्वागता वृत्त में है और रति का वक्तव्य द्रुतविलम्बित वृत्त में है । १०७ एवं १०८ वां पद्य द्रुतविलम्बित छंद में है और इसमें रति प्रीति के कथन का स्वीकार करती है । १०८ वें पद्य के अन्त में कर्ता ने अपना नाम श्लेषालंकार में निरूपित किया है । बाद में 'इति प्रीतिरतिसंवादः' इतना वाक्य गद्य में है अर्थात् यहां प्रस्तुत रचना का एक विभाग पूर्ण होता है।
उपर्युक्त संदर्भ के बाद १ से २१ पद्य शार्दूलविक्रीडित छंद में हैं और इन २१ पद्यो में क्रुद्ध कामदेव का विस्तार से वर्णन है।
अब प्रस्तुत रचना का संक्षिप्त सार प्रस्तुत करता हूँ। १ से २५ पद्यो में सुगुरु के प्रति आन्तरिक और वास्तविक आकर्षण से प्रेरित होकर प्रीति का रति के प्रति वक्तव्य है। इसमें ब्रह्मा ने प्रीति और रति का जो योग कामदेव के साथ जमाया है सो ब्रह्मा की बडी भूल है ऐसा कहा गया है । इस वक्तव्य को विशेष पुष्ट करने के लिए प्रीति ने ब्रह्मा की अनेक क्षतियां कही हैं । यहां कामदेव को छोडकर सुगुरु का अवलंबन लेने का निरूपण है।
२६ से ४८ पद्यों में उपर्युक्त प्रीति के विधान का प्रत्युत्तररूप रति का वक्तव्य है। इसमें 'अपना पति कामदेव है' यह बात जगविख्यात है ऐसा कहकर रति ने कामदेव का प्रभाव और प्रताप का विविध प्रकार से निरूपण किया है । इसके बाद अपने पति का त्याग करना सो कुलाचार नहीं है' ऐसा भी रति ने कहा है। विशेषतः रति ने ऐसा भी कहा है कि सुगुरु तो सिद्धिवधू यानि मोक्ष की प्राप्ति में आसक्त है । अतः सुगुरु का स्वीकार करना सो एकपाक्षिक राग योग्य नहीं । इसकी पुष्टि के लिए रति ने मधुकरी भी चंपक के प्रति एकपाक्षिक राग रखती नहीं है इस प्रकार के विविध उदाहरणों और युक्तियों से प्रीति के अभिप्राय का प्रतिकार किया
___४९ से ७१ पद्यों में 'बडे के संग से लघु भी महान बनता है' यह उचित कहकर प्रीति ने रति के प्रतिपादन का प्रतिकार किया है और सुगुरु का प्राधान्य निरूपित किया है। इस वक्तव्य में प्रीति ने रति को विशेषतः कहा है कि कामदेव में आसक्त होकर यदितूं ऐसे सुगुरु का शरण नहीं लोगी तो कल्पवृक्ष को छोडकर करीर का स्वीकार करने जैसी तेरी बुद्धि मानी जाएगी।
७२ से ८८ पद्यों में रति को प्रीति का कथन सही लगा है किन्तु कामदेव को छोडकर सुगुरु के अवलंबन से होनेवाली अनेक प्रकार की लौकिक आपत्तियां कहकर रति ने एक प्रकार की अन्तर्व्यथा व्यक्त की है। - ८९ से १०१ पद्यों में प्रीति ने रति को लौकिक आपत्तियों का तनिक भी भय न रखकर सुगुरु को स्वीकार करने के लिए अनेक युक्तियों से समझाया है । यहां प्रीतिने बौद्ध, सांख्य