Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 11
________________ श्री विद्यानन्द्याचार्य का व्यक्तित्व व जीवितकाल. साधारणतः मुनिगण एक एक संघ, गण या गच्छके अन्तर्गत रहकर अपने संघ या गण सूचक नाम पाते थे । उस आधारपर कह सकेंगे कि आचार्य विद्यानन्दी ' नन्दी' संघके होंगे । यही नहीं तत्वार्थ श्लोकवार्तिकालंकार के हर अध्याय के अन्त में ' प्रशस्ति' वाक्यके रूपमें 'विद्यानंदी' नामका उल्लेख किया गया है । लेकिन इसी आचार्य की विरचित ' आप्तपरीक्षामे ' - 'विद्यानन्द' नामकी सूचना मिलती है । और इनका यही नाम ज्यादा प्रचलित भी है। इससे अनुमान लगा सकते हैं कि राजवार्तिकालंकार' ग्रंथकर्तृके दोनों नाम ( विद्यानन्द और विद्यानन्दी ) प्रचार में थे । " प्रायः मुनियोंका पूर्वाश्रम अर्थात् माता-पिता - जन्मस्थान - बचपन आदिका पता प्राप्त नहीं है । संसार - विरक्त - जीवन में उनको वे सब पिछले जीवनकी गौण बातें गौण लगती है । मुनि - जीवन संबंधी बातोंका पता लगाना भी कहीं कहीं मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव सा हो जाता है । क्योकि अपने परिचयसे ज्यादा धर्मपरिचयकी ओर लगे रहते थे । इसीलिये विशेषतः मुनिविरचित ग्रंथोंके आधारपर ही उन मुनियोंके व्यक्तित्व पहिचाने जाते हैं । दि० जैन पंथकी sor प्रति और दिगम्बर मुनियोंके आचार व नियम पालन करनेके बारेमें विद्यानन्दके मनमें अपार श्रद्धा तथा निष्ठाका भाव जागृत था । ई. सन ग्यारहवी ( शताब्दि) में विद्यमान ' वादिराज सूरि' ने न्याय - विनिश्चय विवरण में विद्यानंदके बारेमें 'अनवद्याचरण नामसे उनके नियम पालनके प्रति अपना हार्दिक - गौरव व्यक्त किया है । इनकी विद्यासम्पन्नता के विषय में निःसंदेह कह सकते हैं कि अकलंकदेव के बाद दिगंबर जैनाम्नाय में इतिहासप्राप्त केवल इने-गिने afe fद्वानों 'विद्यानन्द' का स्थान सर्वोपरि है । जैन सिद्धांत, जैन - न्याय - व्याकरणादि में ही नही बल्कि जैनेतर बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य मीमांसक, चार्वाकादि अन्य दर्शन शास्त्रों में वे गहराई तक पैंठे हुए ' सिद्धांत तथा अनमोल ' तार्किकरत्न' भी थे । इनसे रची ग्रन्थराशि ही इसका प्रत्यक्ष साक्षी है । विद्यानन्दी के ' जीवित काल ' के बारेमे विश्लेषण या संशोधन करनेकी ज्यादा आवश्यकता हीं प्रतीत नही होती, फिर भी हमारे मतमें यहां पर एक बातका मनन करना, याद रखना अवश्य उचित होगा। डॉ. श्रीकण्ठ शास्त्र के मतानुसार विद्यानन्द (x) गंगवंश के साथि गोट्ट (x) जैन आण्टिक्वाइरी वाल्यूम X X नं. II दिसम्बर १९५४ पृ. ९ से १४ तक ।

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