Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 9
________________ ( ४ ), विद्यानन्दीके इस सुदढ और शास्त्रानसारी विवेचनसे प्रकट है कि वे जैन मनियोंके लिए उपदिष्ट अनशनादि व कायक्लेशादि बाह्य तपोंको कितना महत्व देते थे और उनके परिपालनमे कितने सावधान और विवेकयुक्त तथा जागृत रहते थे। __ विद्यानन्दका दूसरा विचार यह है कि जैन साध वस्त्रादि ग्रहण नहीं करता. क्योंकि वह निग्रंथ और मूर्छारहित होता है। यद्यपि यह विचार सैद्धांतिक शास्त्रमे प्राचीनतम कालसे निबद्ध है, पर तर्क और दशन के ग्रन्थोंमे वह अधिक स्पष्टताके साथ विद्यानन्दसे ही शुरू हआ जान पडता है। उनका कहना है कि जन सिद्धांतमे जैन मनि उसोको कहा गया है जो अप्रमत्त और मर्छारहित हैं । अत: यदि जैन मुनि वस्त्रादिका ग्रहण करता है तो वह अप्रमत्त और मीरहित नहीं हो सकता, क्योंकि मर्जी के विना वस्त्रादिका ग्रहण किसीक संभव नहीं है। इस संबंधमे जो उन्होंने महत्वपूर्ण चर्चा प्रस्तुत की है उसे हम पाठकोंके ज्ञानार्थ 'शंका-समाधान' के रूपमे नीचे देते हैं . शंका- लज्जानिवारणके लिए मात्र खण्ड वस्त्र ( कौंपीन ) आदिका ग्रहण तो मूर्छाके बिना भी संभव है ? समाधान- नहीं, क्योंकि कामकी पीडाको दूर करने के लिए केवल स्त्रीका ग्रहण करने पर भी मुकि अभावका प्रसंग आयेगा और यह प्रकट है कि स्त्रीग्रहणमे मूर्छा है: शंका-स्त्रीग्रहणमे जो स्त्रीके साथ आलिंगन है वही मुर्छा है ? समाधान- तो खण्डवस्त्रादिके ग्रहणमे जो वस्त्राभिलाषा है वह वहां मछी हो। केवल अकेली कामकी पाडा ती स्त्रीग्रहण में स्त्रीकी अभिलाषाका कारण हो और वस्त्रादि ग्रहणमें लज्जा कपडेकी अभिलाषाका कारण नहा, इसम नियामक कारण नहीं है। नियामक कारण तो मोहोदयरुप ही अन्तरंग कारण हैं जो वस्त्रग्रहण और स्त्रीग्रहण दोनोंमे समान है। अतः यदि स्त्रीग्रहणमे भी मुर्छा मानी जाती है तो वस्त्रग्रहण भी मूर्छा अनिवार्य हैं, क्योंकि बिना म के वस्त्राग्रहण हो ही नहीं सकता । शंका- यदि मुनि खण्डवस्त्रादि ग्रहण न करें- वे नग्न रहे तो उनके लिंगको देखनेसे कामिनियोंके हृदयमे विकारभाव पैदा होगा। अत: उस विकारभावको दूर करने के लिए खण्डवस्त्रका ग्रहण उचित है ? समाधान- यह कथन भी उपरोक्त विवेचनसे खंडित हो जाता है, क्योंकि विकारभावको दूर करनेरूप चेष्टा ही वस्त्राभिलाषाका कारण है। तात्पर्य यह कि यदि विकारभावको दूर करने के लिए वस्त्रग्रहण होता है तो वस्त्राभिलाषाका होना अनिवाय है। दूसरे नेत्रादि सुन्दर अंगोंके देखनेमे भी कामिनियोंमें विकारभाव उत्पन्न होना संभव है, अतः उनको ढकने के लिये भी कपडे के ग्रहणका प्रसंग आवेगा, जैसे लिंगको ढकनेके लिए कपडेका ग्रहण किया जाता है । आश्चर्य है कि मनि अपने हाथसे बद्धिपूर्वक खण्डवस्त्रादिको लेकर धारण करता हुआ भी वस्त्रखण्डादिको मर्छारहित बना रहता है ? और जब यह प्रत्येय एवं संभव माना जाता है तो स्त्रीका आलिंगन करता हुआ भी वह मूर्छारहित बना रहे, यह भी प्रत्येय और संभव मानना चाहिए। यदि इसे प्रत्येय और सम्भव नहीं माना जाता तो उसे ( वस्त्रग्रहण करने पर भी मुर्छा नहीं होती, इस बातको ) भी प्रत्येय एवं संभव नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह युक्ति और अनुभव दोनोंसे विरुद्ध है। अतः सिद्ध हुआ कि मूकेि बिना वस्त्रादिका ग्रहण सम्भव नहीं है. क्योंकि वस्त्रादिग्रहण मुर्छाजन्य है- वस्त्रादिका प्रहण कार्य है और मूर्छा उसका कारण है और कार्य, कारणोंके बिना नहीं होता । पर, कारण कार्य के अभावमे भी रह सकता है और इसलिए मूर्छा तो वस्त्रादिग्रहणके अभावमें भी संभव है, जैसे भस्माच्छन्न अग्नि धूमके अभावमें ।

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