Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 10
________________ ( ५ ) शंका- यदि ऐसा है तो पिछी आदिके ग्रहण में भी मूर्छा होनी चाहिए ? समाधान- इसीलिये परम निर्ग्रथता हो जानेपर परिहारविशुद्धि संयमवालोंसे उसका ( पिंछी आदिका ) त्याग ही जाता है, जैसे सूक्ष्म सांवराय और यथाख्यात संयमवाले मुनियोंके हो जाता है । किंतु सामायिक और छेदोपस्थापनासं यमवाले मुनियोंके संयमका उपकरण होनेसे प्रतिलेखन ( पिछी आदि ) का ग्रहण सूक्ष्म मूछकि सद्भावमें भी युक्त ही है। दूसरे, उसमें जैनमार्गका विरोध नहीं है। तात्पर्य यह कि जिन सामयिक और छेदोपस्थापना संयमवाले मुनियोंके पिछी आदिका ग्रहण है उनके सूक्ष्म मूर्छाका सद्भाव है और शेष तीन संयमवाले मुनियोंके पिछी आदिका त्याग हो जानेसे उनके मूर्छा नहीं है। दूसरी बात यह है कि मुनि के लिए रिखी आदिका ग्रहण जैनमार्ग के अविरुद्ध है, अतः उसके ग्रहण में कोई दोष नहीं हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मुनि वस्त्र आदि भी ग्रहण करने लगें, क्योंकि क्योंकि वस्त्र आदि नान्य और संयम के उपकरण नहीं हैं । दूसरे वे जैनमार्ग के विरोधी हैं। तीसरे, वें सभी उपभोगकें साधन हैं । इसके तीन चार पिछव केवल अलाबूल तुमरी ( कमण्डलु ) प्रायः मूल्यमें नहीं मिलते, जिससे गका साधन कहा जाय । निःसदेह मूल्य देकर यदि पिंछादिका भी ग्रहण किया जाय तो नहीं है, क्योंकि उसमें सिद्धांतविरोध हैं । मतलब यह कि पिछी आदि न तो मूल्यवान वस्तुएं हैं और न दूसरों के उपभोगकी चीजे हैं । अतः मुनिके लिए उनके ग्रहणमे मूर्छा नहीं है । लेकिन वस्त्रादि तो मूल्यवाली चीजें हैं और दूसरेके उपभोगमे भी वे आती हैं, अतः उनके ग्रहणमे ममत्वपूर्ण मूर्छा होती है । वह न्यायसंगत शंका- क्षीणमोही बारहवे आदि तीन गुणस्थानालोंके शरीरका ग्रहण सिद्धांत में स्वीकृत है, अतः समस्त परिग्रह मोह - मूर्छाजन्य नहीं है ? समाधान- नहीं क्योंकि उनके पूर्वभव संबंधी मोहोदय ने प्राप्त आयु आदि कर्मबंध के निमित्तसे शरीरका ग्रहण है - उन्होंने उस समय उसे बुद्धिपूर्वक ग्रहण नहीं किया है। और यही कारण है कि मोहनीय कर्मके नाश हो जानेके बाद उसको छोड़नेके लिये परमचारित्रका विधान हैं । अन्यथा उसका आत्यन्तिक त्याग संभव नहीं है । मतलब यह कि बारहवें आदि गुणस्थानवाले मुनियोंके शरीरका ग्रहण आयु आदि कर्मबंध के निमित्तसे है इच्छापूर्वक नहीं है । शंका- घरी की स्थिति के लिये जो आहार ग्रहण किया जाता है उनसे मुनिकी अल्प मूर्छा होना युक्तही है ? केवल अलावा, उन्हें भी उप समाधान- नहीं क्योंकि वह आहार ग्रहण रत्नत्रयकी आराधनाका कारण स्वीकार किया गया है 1 यदि उससे रत्नत्रयकी विराधना होती है तो वह मुनिके लिये अनिष्ट है । स्पष्ट है कि भिक्षाशुद्धि के अनुसार नवकोटी विशुद्ध आहारको ग्रहण करनेवाला मूनी कभी भी रत्नत्रयकी विराधना नहीं करता । अतः किसी पदार्थका ग्रहण मूर्छाके अभाव मे किसीके संभव नहीं है और इसलिए तमाम परिग्रह प्रमत्तके ही होते है, जैसे अब्रह्म । विद्यानन्द इसी ग्रंथ एक दूसरी जगह और भी लिखते हैं कि जो वस्त्रादि प्रचरहित हैं वे निग्रंथ हैं, क्योंकि प्रकट है कि बाह्य ग्रंथ के सद्भाव में अन्तग्रंथ ( मूर्छा ) नाश नहीं होता । जो वस्त्रादिक के ग्रहण भी नियता बताते हैं उनके स्त्री आदिके ग्रहण मे मूक अभावका प्रसंग आवेगा । विषयग्रहण कार्य है और मूर्छा उसका कारण है और इसलिए मूर्छारूप कारणके नाश हो जानेपर विषयग्रहणरूप कार्य कदापि संभव नहीं है । जो कहते हैं कि ' विषय कारण है और मूर्छा उसका कार्य है तो उनके मूर्छाकी उत्पत्ति सिद्ध नहीं होगी पर ऐसा नहीं है, विषयों दूर वनमे रहनेवालों को भी मूर्छा अतः मोहोदय से अपने अभीष्ट अर्थमे मूर्छा होती है और मूछकि अभीष्ट अर्थका ग्रहण होता है। अतएव वह जिसके स्वयं उसी नियता कभी नहीं बन सकती । अतः जैनमनि वस्त्रादि ग्रंथरहित ही होते हैं । अभाव जाती है, ( पू. सु. आप्तपरीक्षा प्रस्तावना पू. ११-१५ ) 3

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