Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 09 10
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ ९।१ १. दोष का सद्भाव-असद्भाव २. क्रोध के दोष।
बाल स्वभाव।
स्वकर्मोदय। ५. क्षमागुण।
* दोष का सद्भाव-असद्भाव * जब कोई भी व्यक्ति हमें अप्रिय कहे हमारे दोषों का उपख्यान करे तो यह विचार करना चाहिए कि यह व्यक्ति जो दोष बता रहा है, वे हमारे अन्दर हैं अथवा नहीं?
यदि विचार करने पर हमें लगे कि ये दोष हमारे अन्दर विद्यमान हैं तो सोचिए वह झूठ कहाँ कह रहा है? उस पर ग्रोध करना कैसे उचित हो सकता है? नहीं कदापि नहीं। यदि विचार करने पर मालूम हो कि ये दोष हमारे अन्दर नहीं है तो उसका अज्ञान समझ कर क्षमा करना चाहिए। उसकी अज्ञानता को ही दोषी समझना चाहिए उसका (व्यक्ति का) दोष नहीं । यदि क्रोधावेश में, उन्मत्तदशा में कोई कुछ बक रहा है तब भी हमें अपनी विवेक जागृति का परिचय देते हुए क्षमादान देना चाहिए। वस्तुत: यदि उस पर क्रोध किया भी जाए तो वह नितान्त निरर्थक ही सिद्ध होगा। क्षमाभाव ही सर्वोत्तम है। * क्रोध से उत्पन्न होने वाले-द्वेष, क्लेश, कलह, वैमनस्य शरीर हानि, हिंसा, स्मृति
भ्रंश(विवेक का नाश) तथा व्रतों के विनाश के सन्दर्भ में तत्काल विचार करना चाहिए। क्रोध, शरीररस्थ भंयकर शत्रु है जबकि 'क्षमा' विश्वमैत्री एवम् अहिंसा का अमर सन्देश।
क्रोध से बाह्य जीवन पर, अपने शरीर पर तथा आध्यात्मिक जीवन पर विपरीत असर होता है१. बाह्यजीवन में नुकसान -
क्रोध के आवेश में जीवात्मा अन्य के साथ द्वेष करता है। परिणाम स्वरूप दोनों में परस्पर वैमनस्य भावना जागती है। दोनों का जीवन अशान्त हो जाता है। क्रोधित व्यक्ति का विवेक नष्ट हो जाता है। परस्पर तीक्ष्ण कटु व्यंग बाणों का प्रयोग होता है। निकृष्ट से + निकृष्ट अवर्णवाद बोली का विषय बनता है। क्रोधावेश उपकारी के उपकार को भुला देता है। सर्वथा अयोग्यवर्तन का नग्ननृत्य प्रारम्भ हो जाता है। ऐसा करने से अपनी प्रतिष्ठा को धक्का, कलंक लगता है। परिणाम स्वरूप समाज में कुटुम्ब में या सम्प्रदाय में महत्व नहीं रह जाता है। क्रोधी असंयत भाषी कहीं आदर प्राप्त नहीं कर सकता सर्वत्र उसे पद-पद पर अनादर प्राप्त होने लगता है।
क्रोध रूपी अग्नि, प्रीति, विनय तथा विवेक को भी जलाकर राख कर देती है। क्रोधी का सारा जीवन नीरस हो जाता है। क्रोध का परिणाम पश्चात्ताप एवं विषाद ही होता है। आन्तरिक