Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 09 10
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 34
________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ १९ उक्त संसार भावना का विशेष स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि- जीवात्मा नरक, तियञ्च, मनुष्य और देवगति-इन चार गति स्वरूप-इस संसार में परिभ्रमण करते हुए अनन्त दु:खों को सहन करते है। इस संसार के किसी भी कोने में तथा संसार की कोई वस्तु में आंशिक भी सुख नहीं है। इतना ही नहीं मात्र दु:ख ही दुःख है । यह संसार विविध दुःख जालों का महारण्य है। अष्टकर्म के संयोग से जीवात्मा को संसार में परिभ्रमण अवश्य करना पड़ता है क्योंकि कर्म का संयोग राग और द्वेष है। अर्थात् संसार के दु:खों से बचना हो तो राग-द्वेषादिक दोषों का विनाश करना चाहिए। फल - राग और मोह के वश में वर्तमान जीवात्मा चौरासी लाख जीव योनि में परिभ्रमण करके परस्पर भक्षण, वध, बन्ध, असत्य-आरोप तथा अप्रिय वचनादिक से तीव्र दु:खों को अनुभूत करतें है। अत: यह संसार दु:ख स्वरूप ही है। संसार भावना से संसार का भय उत्पन्न होता है। इससे अध्यात्म प्रमुख स्तम्भ रूप निर्वेद गुण उत्पन्न होता है। एतत् सम्बन्ध में भाष्यग्रन्थ में कहा है _ 'सांसारिक सुख जिहासालक्षणो निर्वेदः।' अर्थात् संसार सुख के विनाश की इच्छा निर्वेद गुण करता है। निर्वेद गुणसम्पन्न जीवात्मा अपने संसारचक्र का आत्यन्तिक विनाश करने का सम्यक् प्रयत्न करता है। ४. एकत्वानुप्रेक्षा - संसार में जीवात्मा अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मृत्यु प्राप्त करता है। अकेला ही अपने किये हुए कर्मरूपी बीज सुख-दु:खादि फलों को अनुभव करता है। रोग-व्याधि, जन्म जरा और मरणादि दु:खों को दूर करे, ऐसा कोई भी स्वजन सम्बन्धी नहीं है। मुमुक्षु जीवों को राग-द्वेष के प्रसंगों से निर्लेप होने के लिए जीवात्मा अकेला और असहाय है। अर्थात् जीव अकेला ही होने के कारण निज शुभाशुभ कर्मों का फल भी अकेला ही भोगता है। अन्य स्वजन सम्बन्धी, उसके कर्मों के फल को बांट करके भी नहीं ले सकते है। परलोक में से जीवात्मा यहाँ अकेला ही आता है तथा यहाँ से परलोक गमन भी अकेला ही करता है। अन्य कोई भी उसके साथ परलोक नहीं जाता है। भले ही जीवात्मा ने अपने स्वजनसम्बन्धियों के लिए पाप किए हो तो भी पापों का फल तो अपने को (जीवात्मा को) ही भोगना पड़ता है। उसमें सम्बन्धियों की कोई भागीदारी नहीं होती है। फल - अपने अन्त:करण (हृदय) को एकत्व भावना से वासित बनाने से स्वजन का राग, आसक्ति मिटता है तथा पर जन के प्रति द्वेष भावना भी दूर हो जाती है। इस प्रकार निस्संग भाव आने से मोक्ष के लिए विशेष प्रवृत्ति सबल होती है।

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