Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 09 10
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
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भी संकटापन्न होता है । कहते है कि सर्प को पकड़ने वाले सपेरे ऐसी औषधि को उसके विवर के आस-पास रख देते है, जिसकी सुगन्ध उसे अतिप्रिय होती है । अत: वह उस सुगन्ध के वशीभूत अपने बिल से निकल कर सुगन्धि की ओर मत्त - सा होकर बढ़ता है, किन्तु घ्राणेन्द्रिय की लोलुपता भूत हुआ वह सपेरों द्वारा पकड़ लिया जाता है तथा नाना प्रकार के कष्टों की अनुभुति करता है। अत: घ्राणेन्द्रिय निग्रह न करने वाले साधकों की क्या दशा होती है एतदर्भ भी मुहुर्मुहु करना चाहिए। अन्यथा इह लोक तथा परलोक दोनों विनष्ट हो जातें है ।
चक्षुरिन्द्रिय- चक्षु = नेत्र ( आँख ) । जिस इन्द्रिय से हम रूप, रंग का ग्रहण करतें है, उसे चक्षुरिन्द्रिय कहते है । चक्षु = नेत्र इन्द्रिय से विषयाकृष्ट जीव सर्वदा पतित होते हैं । द्वीदर्शन के निमित्त से अर्जुन चोर के समान या फिर दीप की दीप्ति के सौंदर्य पर प्रमत्त बने पतंगो की तरह जीव मृत्यु मुख में निपतित होते हैं। अत: चक्षुरिन्द्रिय से विवेक पूर्वक अवलोकन, दर्शन ही उपयोगी है। आसक्ति=दीवानगी विनिपात का हेतु है, कर्म आस्रव का निधान है । उभयत्र विनाश का मूल है। अत: चक्षुरिन्द्रिय संयम नितान्त अनिवार्य है ।
श्रोत्रेन्द्रिय - श्रात्र=कर्ण (कान) कर्णेन्द्रिय से गीत, संगीत की स्वरलहरी, नाद माधुर्य के प्रति अतिशय आकृष्ट जीव तरह-तरह के कष्टों की अनुभूति करता है । वेणुनाद की मधुरिम तान का दीवाना हिरण तो शिकारी के जाल में फँसकर मृत्यु की आगोस में समा जाता है। अत: श्रोत्रेन्द्रिय विवेक, कर्णेन्द्रिय निग्रह नितान्त आवश्यक है।
इस प्रकार आस्रवद्वार रूपी इन्द्रियों के प्रति सचेत रहते हुए इनका सावद्यता का चिन्तनमनन करते हुए जागृत साघु संवर- साधना का उत्कृष्ट मार्ग प्रशस्त करतें है । आस्रव कर्मों के आगमन का निरोध करने के लिए उत्कृष्ट साधना स्वरूप इन्द्रिय निग्रह सहित आस्रवानुप्रेक्षा नितान्त ध्यातव्य है।
संवरानुप्रेक्षा - आस्रवों का निरोध करना 'सवंर' कहलाता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग आस्रव के हेतु है । आस्रव के कारणों के परित्याग का विचार करके तप, समिति, गुप्ति चरित्र, परीषहजय धर्मपालन आदि विशुद्ध आचरणों से संवर सधता है। इसलिए संसार परिभ्रमण के कारण भूत आस्रव को रोकने का एक मात्र 'साधन संवर' है। उसकी सचेत होकर अनुप्रेक्षा करना बारम्बार चिन्तन मनन, निरीक्षण करना ही 'संवरानुप्रेक्षा' है।
निर्जरानुप्रेक्षा - कर्मों का आंशिक क्षय 'निर्जरा' कहलाता है। निर्जरा का प्रधान द्वादशविध तपश्चरण है। समिति, गुप्ति, श्रमणधर्म, परीषह और उपसर्गों को समभाव से सहना, - विजय, इन्द्रिय-निग्रह आदि से भी निर्जरा होती है। इस प्रकार निर्जरा के कारण एवं स्वरूप का निरन्तर चिन्तन करना 'निर्जरानुप्रेक्षा' कहलाता है। इसे जैन धर्मानुयायी निर्जरा भावना के नाम से भी जानते है।
कषाय