Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 09 10
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 39
________________ २४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ९।१ वस्तुत: दु:खों, विपत्तियों, परीष हों तथा उपसर्गों को सम्भावपूर्वक धैर्य से, ज्ञानपूर्वक सहन करने से निर्जरा होती है। अज्ञानपूर्वक निरुद्देश्य, निरर्थक, अधैर्य से रो-रोकर कष्ट सहन से भी उदय में आये हुए पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा तो होती है किन्तु यह 'अकाम निर्जरा' है, उससे कर्मक्षय के अनुपात में नये कर्मों का बन्धन और अधिक सुदृढ़ हो जाता है किन्तु ज्ञान पूर्वक सोद्देश्यक, समभावपूर्वक कष्ट सहन, परीषह-उपसर्ग-विजय से 'सकाम निर्जरा' होती है। यही यहाँ उपादेय है। पूर्वकथित (सकाम) निर्जरानुप्रेक्षा के लिए नाना प्रकार के कर्म विपाकों का (अशुभ कर्मोदय काल में) चिन्तन करना और अकस्मात् पूर्वबद्ध कर्मोदय के कारण प्राप्त कटु विपाक(अति दु:ख) के समय समाधानवृत्ति साधना, समभावपूर्वक सहना जहाँ तक सम्भव हो, वहाँ स्वैच्छिक तप-त्याग पूर्वक संचित कर्म भोगना उचित है। ___ लोकानुप्रेक्षा - तत्त्वज्ञान की सुदृढ़ता एवं विशुद्धि के लिए षड्द्रव्यात्मक लोक का सतत चिन्तन करना या लोक के संस्थान जड़, चेतन के स्वरूप तथा परस्पर सम्बन्धों-असम्बन्धों का विचार करना भी लोकअनुप्रेक्षा या लोकभावना है। लोक स्वरूप का उक्तप्रकार से चिन्तन करने से साधु तात्त्विक ज्ञानात्मक विशुद्धि प्राप्त करता है। बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा - चतुर्गति रूप संसार अनादि है। अत: संसारी प्राणी नरकादिक चारो गतियों में परिभ्रमण करता है। इस परिभ्रन्ति काल में रत्नत्रयी के अतिरिक्त सबकी प्राप्ति अनेक बार हुई है। प्राप्त मोक्ष मार्ग में अप्रमत्तभाव की साधना के लिए दु:ख प्रवाह में मोहनीय कर्मों के तीव्र आघातों को सहते हुए जीव को शुद्ध बोधि और शुद्ध चरित्र मिलना दुर्लभ है। यही माक्ष प्राप्त करने का तथा समस्त दु:खों से मुक्त होने का प्रधान साधन है। इसके बिना सारी तपश्चर्या, व्रतनियमक्रिया आदि का आचरण कर्मक्षय या मोक्षप्राप्ति का करण नहीं है अपितु भवभ्रमण का ही कारण है। अत: मोक्षमार्ग (रत्नत्रयी) को प्राप्त करके साधु को सदैव बोधि दुर्लभता का चिन्तन करना चाहिए। कथं तावत् परिषहा: परिषोढ़व्या इत्येव स्पष्टी कर्तु सुत्रयतिॐ सूत्रम् - मार्गाच्यवन निर्जरार्थ परिषोढ़व्या परीषहाः॥६-८॥ ___ सुबोधिका टीका मार्गच्यवनेति। सग्यम्दर्शनज्ञान चारित्ररत्नत्रयस्वरूपमोक्षमार्गान्न च्युतिर्भवेत्, उपार्जित कर्मणां च निर्जरा भवेद्-इत्येतदर्थ परिषहा: षोढव्या:। अयं भाव:-यः खलु परीषहाद् भीतिं भजते स

Loading...

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116