Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 09 10
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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९४ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे
[ १०१ पूर्वभाव प्रज्ञापनीय के दो भेद हैं१. अनन्तर - पश्चात् कृतिक २. परंपर - पश्चात् कृतिक।
अनन्तर पश्चात् कृतिक (जिसे किसी चारित्र का अन्तर न हो- ऐसा) नय की अपेक्षा से यथाख्यात चारित्री सिद्ध होता है।
परम्पर पश्चात् कृतिक (अन्य चारित्र से सान्तर) तप के व्यंजित और अव्यंजित- ये भेद
अव्यंजित सामान्यत: संख्या मात्र से कहे हुए तथा व्यंजित विशेष नाम द्वारा कथित। अव्यंजित की अपेक्षा से तीन चारित्र वाले, चार चारित्र वाले तथा पाँच चारित्र वाले सिद्ध होते हैं। व्यंजित नय की अपेक्षा से सामायिक सूक्ष्म सम्पराय और यथाख्यात चारित्र वाले सिद्ध होते हैं। अथवा सामायिक, छेदोपसथापनीय सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात चारित्र वाले सिद्ध होते हैं।
अथवा- छेदोपस्थापनीय, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात चारित्र वाले सिद्ध
होते हैं।
७. प्रत्येक बुद्ध बोधित - स्वयं बुद्ध के दो भेद हैं- १. तीर्थकर- प्रत्येक बुद्धसिद्ध २. बुद्धबोधित सिद्ध- के दो प्रकार पर बोधक और आत्महितसाधक-इस प्रकार से प्रत्येक बुद्धसिद्ध के चार प्रकार होते हैं।
८. ज्ञान - प्रत्युत्पन्न भाव नय की अपेक्षा से केवली सिद्ध होते हैं। पूर्वभाव प्रज्ञापनीय के अमन्तर पश्चात् कृतिक होते हैं। पूर्वभाव प्रज्ञापनीय के अनन्तर पश्चात् कृतिक और परंपर पश्चातकृतिक ये दो प्रकार हैं। दोनों के व्यंजित और अव्यंजित दो-दो प्रकार हैं। उसमें अव्यंजित में दो-तीन-चार ज्ञान से सिद्ध होते हैं, और व्यंजित में मति-श्रुत से मति-श्रुत-अवधि से मति-मन: पर्याय से मति- श्रुत-अवधि मन:पर्याय से सिद्ध होते हैं। वर्तमान में सभी सिद्ध केवल ज्ञान के ही धारक हैं। उनकी सिद्धि केवल ज्ञान प्रकारक ही वर्णित है किन्तु चार क्षायो + पशमिक ज्ञानों में यथासम्भव ज्ञानों के धारक भी सिद्धीप्राप्त करते हैं। क्षायोपशमिक ज्ञान, एककाल में एक जीव के सन्दर्भ में एक से लेकर चार तक प्राप्त हुआ करते हैं।
९. अवगाहना - शरीर प्रमाण जितने स्थान को घेरता है, उसे अवगाहना कहते हैं। उत्कृष्ट एवं जघन्य के भेद से अवगाहना दो प्रकार की होती है। उत्कृष्ट अवगाहना का प्रमाण पाँच सौ धनुष से पृथक्त्व धनुष अधिक माना गया है तथा जघन्य अवगाहना का प्रमाण सात रत्नि में से पृथकत्व अंगुल कम माना गया है।
पूर्वप्रज्ञापनीयनय की विवक्षा से जीव, जिस शरीर प्रमाण से सिद्ध पद प्राप्त करता है, वही उसकी सिद्धि की अवगाहना का भी प्रमाण रहता है क्योंकि जीव की अवगाहना शरीर के प्रमाण के