Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 09 10
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे मुमुक्षु जनों को मद एवं मान का प्रयत्न पूर्वक परित्याग करना चाहिए। ३. आर्जव - आर्जव ऋजुता (सरलता)। मन, वचन तथा काया की प्रवृत्ति में सरलता आना 'आर्जव' कहलाता है।
विचारना, कहना तथा करना-इन तीनों की विशुद्ध सरलता को आर्जव कहते हैं। कूटकपटता, शठता तथा मायाचारिता से रहित विशुद्ध विनम्र वृत्ति से आर्जव धर्म की प्राप्ति होती है।
४. शौच - लोभ का अभाव - अनासक्ति भाव को शौच कहते है। धर्म के उपकरणों पर भी ममत्वभाव अर्थात् आसक्ति भाव नहीं रहना चाहिए। लाभ आसक्ति से जीवात्मा कर्म रूपी मल से मलिन होता है। लोभ की आसक्ति से जीवात्मा शुद्ध बनता है। अलोभ अनासक्ति, वस्तुत: शौच (शुचि) है।
५. सत्य - मिथ्या दोषरहित हितकर वचन को 'सत्य' कहते हैं। अर्थात् आवश्यक होने पर ही स्व-पर हितकारी, शुद्ध तथा संक्षिप्त वचन बोलना चाहिए।
६. संयम - मन, वचन, काय-नामक त्रिकरण योगों का निग्रह करना ही 'संयम' कहलाता है।
सामान्यत: संयम के सत्तरह भेद हैं- पाँच अव्रतरूप आस्रवों का त्याग, पाँच इन्द्रियों का जय (जीतना) चार कषायों का परित्याग तथा मन, वचन काय दण्ड से निवृत्ति।
अथवा पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय (बेइन्द्रिय) त्रीन्द्रिय (ते इन्द्रिय) चतुरिन्द्रिय (चउरिन्द्रिय), पंचेन्द्रिय, प्रेक्ष्य, उपेक्ष्य अपह्यत्य, प्रभुज्य, काया, वचन मन तथा उपकरण- इस प्रकार सत्तरह प्रकार का संयम होता है। १. पृथ्वीकाय के जीवों को दुःख हो - ऐसी प्रवृत्ति को मन, वचन और काया से करना, कराना
या अनुमोदन करने का त्याग करना ही 'पृथ्वीकाय संयम' कहलाता है। २-९. इस प्रकार पंचेन्द्रिय संयम तक भी समझना चाहिए। १०. नेत्र से निरीक्षण करके विवेक पूर्वक उठना-बैठना-इत्यादि सजग चेष्टा को 'प्रेक्ष्य संयम'
कहते है। ११. साधुओं को शाद्धोक्त अनुष्ठानों में जोड़ना तथा स्वक्रिया के व्यापार से रहित गृहस्थ की
उपेक्षा-करना 'उपेक्ष्य संयम' कहलाता है। अनावश्यक वस्तु का त्याग(अग्रहण) अथवा जीवादियुक्त अभक्ष्य भिक्षा आदि को परठव
देना (त्याग देना) 'अपहृत्य संयम' कहलाता है। १३. रजोहरण (ओघा) से प्रमार्जन करके बैठने आदि की क्रिया को 'प्रमृज्य संयम' कहते हैं।