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ताओ उपनिषद भाग ६
तुम मेरे पास बैठे हो, लेकिन फासला तो है। तुम और पास आ जाओ, फासला कम हो लाएगा, रहेगा तो। तुम बिलकुल आकर मेरे गले से मिल जाओ, फासला न के बराबर हो जाएगा, लेकिन न के बराबर भी फासला तो है ही। पास भी तो दूर ही है। परमात्मा पास से पास है, यह परम सत्य है।
लेकिन फिर तुम्हें मिल क्यों नहीं रहा है? अगर इतना पास है तो मिल ही जाना चाहिए था। अगर इतना पास है तो खोने का उपाय ही कहां था? अगर इतना पास है तो अब तक भटकन क्यों है?
इसलिए ज्ञानी कहते हैं, दूर से भी दूर। अगर इसको हम और सुलझा कर कहना चाहें तो यूं कह सकते हैं कि परमात्मा तो तुम्हारे बहुत पास है, तुम परमात्मा से बहुत दूर। मगर वह भी अतळ है। क्योंकि तुम कहोगे, जब परमात्मा हमारे पास है तो हम भी उसके पास हैं। परमात्मा तो तुम्हारे पास है, तुम्हारे भीतर है, तुम हो, लेकिन तुम परमात्मा से बहुत दूर हो। तुम परमात्मा के भीतर नहीं हो। तुम्हारा फासला अनंत है।
__ अतर्व्य हो जाती है जितनी होती है विराट बात। और जब अतयं हो जाती है तो तर्कनिष्ठ मन कहता है, ये तो मूढ़ता की बातें हैं। और लाओत्से जैसा मूढ़ तुम न पा सकोगे; सब उपनिषदों को हरा देता है लाओत्से। उस जैसा पैराडाक्सिकल, उस जैसा विरोधाभासी कभी कोई व्यक्ति हुआ ही नहीं। मैं उसे हराने की कोशिश कर रहा हूं, सफलता मुश्किल है; कोई उपाय नहीं दिखता। लाओत्से से ज्यादा विरोधाभासी होने की जगह नहीं बची है। ___तुम पूछो लाओत्से से, कैसे पाएंगे परमात्मा को? वह कहता है, पाने की कोशिश की कि खो दोगे; भूल कर भी कोशिश मत करना। कोशिश में ही तो लोग भटक गए हैं। जो मिला ही हुआ है, उसे कहीं कोशिश करके कोई पाता है? तुम फिर भी पूछोगे, फिर क्या करें? वह कहता है, किया कि चूके; पाने का ढंग है न खोजना। लाओत्से कहता है, पाने का ढंग है न खोजना; खोजना ही नहीं। लाओत्से कहता है, उसकी तरफ जाने का ढंग है बैठ रहना, उठता ही मत। चले कि भटके; चले कि दूर निकले। वह तो पास था। तुम चल कर कहां जा रहे हो? शरीर ही न बैठ जाए, मन भी बैठ जाए, तुम्हारे भीतर कोई गति ही न रह जाए और तुम उसे पा लोगे। पा लोगे कहना ठीक नहीं है! तुम अचानक हंसोगे और कहोगे, जिसे सदा से पाया हुआ था, उसे खोया कैसे था? यह . अनहोनी घटी कैसे? यह चमत्कार कैसे संभव हुआ कि जो भीतर जाग रहा था, जो खोजने वाले में छिपा था, जो खोजी का हृदय था, उसको हम चूक कैसे गए?
अगर और ठीक से समझना चाहो तो लाओत्से यह कहता है कि वह पास है इसीलिए तुम्हें दूर मालूम पड़ता है। वह पास है इसीलिए तुम चूक गए हो। जैसे सागर की मछली चूक जाती है सागर को, उसे पता ही नहीं चलता कि सागर कहां है। पता चलेगा भी कैसे? पता चलने के लिए थोड़ी दूरी चाहिए। मछली सागर में ही पैदा होती है; सागर में ही जवान होती है; सागर में ही जीती है; सागर में ही मर जाती है। मछली को पता कैसे चलेगा कि सागर है? कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि कोई मछुआ मछली को पकड़ लेता है, कोई मछुआ जाल में फांस लेता है, कोई मछुआ सागर से उठा लेता है दूर मछली को, तट पर पटक देता है। तब मछली को पहली बार पता चलता है कि सागर क्या है! खोकर पता चलता है कि क्या है, होकर पता नहीं चलता।
लेकिन परमात्मा के साथ और भी अड़चन है। उसका कोई किनारा नहीं। और बहुत मछुओं ने जाल डाले हैं, मैं भी वही कर रहा हूं। मछलियां फंस भी जाएं तो भी उन्हें किनारे पर पटकने का कोई उपाय नहीं। किनारा ही नहीं है! परमात्मा तटहीन सागर है।।
इसलिए तुम उसे जान नहीं पा रहे, क्योंकि वह बहुत करीब है। तुम उसे जान नहीं पा रहे, क्योंकि वह तुम में ही छिपा है। कबीर कहते हैं, कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढे बन मांहि। छिपी है वास भीतर और मृग पागल हो जाता है। और खोजता है जंगल में दूर-दूर। लहूलुहान हो जाता है, टकराता है, भागता है। सुगंध कहीं से आती मालूम