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ताओ उपनिषद भाग ६
तो फिर तुम्हें रूपांतरित होना पड़ेगा। और मन तो रूपांतरित नहीं होना चाहता। क्योंकि मन तो जीता है आदतों में, बंधी हुई यांत्रिकता में। कम से कम प्रतिरोध उसका मार्ग है। बदलाहट में तो बड़ी मुसीबत होगी, सब बदलना पड़ेगा। इसलिए अचेतन रास्ता खोजता रहता है कि नहीं, यह भी गुरु नहीं; यह भी गुरु नहीं; यह भी गुरु नहीं; यह भी ज्ञान नहीं है। इस तरह तुम अपने को सुरक्षित करते हो। जब तुम कह देते हो कि यह गुरु नहीं है तो असली में तुम यह कह रहे हो कि शिष्य होने की झंझट से एक बार फिर बचे।।
शिष्य होना बड़ी कठिन बात है। इस संसार में उससे ज्यादा कठिन बात कोई भी नहीं। क्योंकि शिष्य होने का अर्थ है कि हमने किसी और का सहारा पकड़ लिया। और हमने सहारा बेशर्त पकड़ा; पाने की आशा से नहीं, प्रेम के भरोसे में पकड़ा। कहीं पहुंच जाएंगे, इस लोभ से नहीं; किसी ने हमारे भीतर वीणा जगा दी, किसी ने हमारे भीतर एक नये संगीत को जन्म दे दिया, और हमारे पैर बंधे हुए उसके पीछे चलने लगे। जैसे सांप नाचने लगता है बांसुरी को सुन कर ऐसा ही गुरु को देख कर, सदगुरु को देख कर शिष्य अपना भान खो देता है। अपनी अकड़, अपना होना खो देता है। दूर की बांसुरी बजने लगी; अज्ञात की पुकार आ गई। बिना पूछे-कहां जा रहा हूं! कहां ले जा रहे हो! क्योंकि बताने का कोई उपाय नहीं है। पूछा, कि बताने का कोई उपाय नहीं है। जाने से ही जाना जाता है। होने से ही हुआ जाता है। उस मंजिल के संबंध में कुछ भी कहा नहीं जा सकता। तुम जाओगे, जानोगे, देखोगे, तो ही। श्रद्धा के किसी गहन क्षण में यात्रा शुरू होती है शिष्य की।
शिष्य का अर्थ है जो सीखने को तैयार है। सीखने को तैयार कौन है?
सीखने को वही तैयार है जिसने यह अनुभव कर लिया कि अब तक अपने तईं बहुत उपाय किए, कुछ भी सीख न पाया। सीखने को वही तैयार है जिसने अपने अज्ञान की पीड़ा की प्रतीति कर ली। सीखने को वही तैयार है जिसने देख लिया अपने हृदय के गहन अंधकार को। सीखने को वही तैयार है जिसने देख लिया कि मैं अपने जीवन को सिर्फ उलझा रहा हूं, सुलझा नहीं रहा। और जितना सुलझाने की कोशिश करता हूं, बात और उलझती चली जाती है। ऐसे पीड़ा के क्षण में, ऐसी संताप की अवस्था में, अपनी परिस्थिति को पूरा-पूरा देख कर, अपनी यात्रा की । व्यर्थता को समझ कर शिष्यत्व का जन्म होता है। तब कोई सीखने को तैयार होता है।
और जो सीखने को तैयार है उसे अपनी अस्मिता और अहंकार को छोड़ देना पड़ता है। क्योंकि अहंकार सीखने न देगा। अहंकार बदलने न देगा। अहंकार अपने से ऊपर किसी को रखने को कभी राजी ही नहीं है। परमात्मा को भी करोड़ों लोग इनकार करते हैं सिर्फ इसी कारण; इसलिए नहीं कि उन्हें पक्का पता है कि परमात्मा नहीं है। कैसे पता हो सकता है?
मेरे पास कभी-कभी नास्तिक आ जाते हैं। कहते हैं, कोई परमात्मा नहीं है। मैं उनसे कहता हूं, तुमने खोजा? तुमने सब खोज डाला? तुमने अस्तित्व के सब कोने-कातर देख डाले हैं? कुछ खोजने को जगह नहीं बची? अगर सब देख डाला हो और परमात्मा को न पाया हो, तब तो बात समझ में आती है। लेकिन खोजा कितना है? जब तक तुम पूरे अस्तित्व को रत्ती-रत्ती नाप न डालो तब तक यह कहने का हक नहीं है कि परमात्मा नहीं है। क्योंकि जो हिस्सा शेष रह गया है, कौन जाने वहां हो! और शेष तो बहुत बड़ा रह गया है। जो जाना है वह तो ना-कुछ है। जो शेष है उसका तो कोई अंत नहीं।
इसलिए नास्तिक अक्सर सोचता है कि मैं तर्कयुक्त हूं, लेकिन तर्कयुक्त होता नहीं। यहीं तो सारा तर्क व्यर्थ हो गया। बिना खोजे कहते हो नहीं है! अंधापन है यह तो। खोज लो, फिर न पाओ तो कह देना।
लेकिन असली सवाल नास्तिक को खोजने का नहीं है। वह यह कह रहा है, कोई परमात्मा नहीं है। इस कहने में वास्तविक क्या कह रहा है? वह यह कह रहा है कि मेरे ऊपर किसी को मानने की मुझे सुविधा नहीं है। और