Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 22
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free लाओत्से जिस दुनिया की बात कर रहा है, जिन लोगों की बात कर रहा है, जिन संभावनाओं की बात कर रहा है, वह शब्दहीन अनुभूति की संभावना की बात है। शब्द के साथ वस्तुओं का जगत आ जाता है। शब्द के हटते ही वस्तुओं का जगत हट जाता है, अस्तित्व मात्र ही रह जाता है। प्रश्न: भगवान श्री, अनाम की इस मौन अनुभूति को स्वर्ग और पृथ्वी या चेतना व पदार्थ, ऐसा द्वैतमूलक नाम क्यों दिया गया है? अद्वैत की अभिव्यक्ति क्यों नहीं की गई है? अभिव्यक्ति द्वैत की ही हो सकती है; अद्वैत अनभिव्यक्त रह जाता है। तो जो अधिकतम किया जा सकता है, वह दो-बोलने में। निकटतम जो सत्य के है, वह दो-बोलने में। बोलने के बाहर तो एक ही रह जाता है। लेकिन भाषा किसी भी चीज को दो में तोड़े बिना नहीं बोल सकती है। लाओत्से बोल रहा है, लिख रहा है, तो जो न्यूनतम भूल हो सकती है, वह कर रहा है। इससे ज्यादा ठीक बात नहीं हो सकती। और अगर हमें इसे भी इनकार करना हो, तो भी शब्द का ही उपयोग करेंगे। तो हम कहेंगे अद्वैत, दो नहीं। लेकिन फिर भी हमें दो का तो उपयोग करना ही पड़ेगा। नहीं कहने के लिए भी कहना पड़ेगा, दो नहीं। वह दो तो हमारा पीछा करेगा ही। जब तक हम बोलने की चेष्टा करेंगे, दो हमारा पीछा करेगा ही। बोलना छोड़ें. तो एक रह जाता है। हम कह सकते हैं कि हम एक ही क्यों न बोलें? लेकिन हमें खयाल नहीं है। जब आप बोलते हैं एक, तब तत्काल दो का खयाल पैदा हो जाता है। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जो बोले एक और दो का खयाल पैदा न करवा दे। और जो बोले एक, उसको भी दो का खयाल तत्काल पैदा हो जाता है। असल में, एक का कोई अर्थ ही नहीं होता, अगर दो न होते हों। एक सिर्फ दो तक पहुंचने की सीढ़ी का काम करता है, और कुछ भी नहीं। लाओत्से दो शब्दों का प्रयोग कर रहा है इसीलिए कि शब्द में अधिकतम जो कहा जा सकता है, वह दो। अनेक को घटा-घटा कर दो तक लाया जा सकता है। फिर उसके पार तो निःशब्द का जगत है। उसके पार तो इतना भी नहीं कहा जा सकता जितना लाओत्से कह रहा है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि वह एक अनाम है। उस एक के लिए अभिव्यक्ति नहीं दी जा सकती है। जो भी हम कहेंगे, कहते ही दो बन जाता है। यह करीब-करीब ऐसा है जैसे हम पानी में एक लकड़ी को डालें, डालते ही वह तिरछी हो जाती है। होती नहीं, दिखाई पड़ती है। हो जाती तो इतना उपद्रव न था, तो वह भी सत्य हो जाता कि लकड़ी तिरछी हो गई। होती नहीं, दिखाई पड़ती है। बाहर निकालते हैं, फिर एक हो जाती है। हो नहीं जाती, वह एक थी ही। फिर पानी में डालते हैं, वह फिर तिरछी हो जाती है। और जिस आदमी ने हजार दफे पानी में डाल कर देख ली है, वह जब एक हजार एकवीं बार फिर पानी में डालता है, तो वह यह आशा न रखे कि मैं इतना अनुभवी हो गया, अब मुझे तिरछी न दिखाई पड़ेगी। तिरछी तो दिखाई पड़ेगी ही, अनुभव केवल इतना ही फायदा देगा कि वह आदमी मानेगा नहीं कि तिरछी है। दिखाई तो तिरछी ही पड़ेगी। जैसे पानी में डालते ही रेडिएशन का नियम बदल जाता है, किरणों की गति बदल जाती है, इसलिए लकड़ी तिरछी दिखाई पड़ने लगती है, वैसे ही भाषा में सत्य को डालते ही रेडिएशन बदल जाता है; और एक बताने वाला शब्द भी डालिए भाषा में, तत्काल तिरछा होकर दो की सूचना देने लगता है। लाओत्से को भी पता है कि जो मैं कह रहा हूं, वह द्वैत है। लेकिन कोई उपाय नहीं है। लाओत्से भी कहेगा, तो द्वैत का ही उपयोग करना पड़ेगा। इतनी कठिनाई है कि अगर लाओत्से चुप भी रहे और चुप रह कर भी कहना चाहे, तो भी द्वैत हो जाएगा। अभिव्यक्ति की चेष्टा द्वैत बना देगी। समझें! बहुत मौके पर ऐसा हुआ है। शेख फरीद के पास कोई गया है और उससे पूछता है कि मुझे कुछ कहो! लेकिन वही कहना जो सत्य है, जरा सा भी असत्य न हो। मुझे तो तुम उसी सत्य को बताना, संतों ने जिसकी तरफ इशारा किया है और कहा है कि बताया नहीं जा सकता। तुम मुझे वही सत्य बता दो, जो निःशब्द है। फरीद ने क्या कहा? फरीद ने कहा, जरूर बताऊंगा, तुम अपने प्रश्न को इस भांति बना कर लाओ कि शब्द उसमें न हों। तुम निःशब्द में पूछोगे, मैं निःशब्द में उत्तर दे दूंगा। लेकिन तुम मेरे साथ ज्यादती मत करो कि तुम शब्द में पूछो और मैं निःशब्द में उत्तर दूं। तुम जाओ, तुम निःशब्द बना लाओ अपने प्रश्न को। मैं वादा करता हूं कि निःशब्द में उत्तर दूंगा। वह आदमी चला गया। कठिनाई तो थी। बहुत सोचा उसने, वर्षों। कभी-कभी फरीद उसके गांव से निकलता था, तो उसके दरवाजे खटखटाता था कि क्यों भाई, क्या हुआ तुम्हारे सवाल का? बना पाए अब तक कि नहीं बना पाए? वह आदमी कहता, बहुत कोशिश करता हूं, लेकिन प्रश्न बनता नहीं बिना शब्द के। और कोशिश करो, फरीद कहता था। जब तुम्हारी कोशिश पूरी हो जाए और तुम बना लो निःशब्द प्रश्न, तो आ जाना मेरे पास! मैंने उत्तर तैयार रखा है। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज

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