Book Title: Sumanmuni Padmamaharshi Granth
Author(s): Bhadreshkumar Jain
Publisher: Sumanmuni Diksha Swarna Jayanti Samaroh Samiti Chennai

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Page 8
________________ इस ग्रन्थ के सम्प्रेरक हैं – मुनि श्री सुमन्तभद्र जी म. 'साधक'। आपश्री ने ही श्रीयुत दुलीचन्दजी जैन चेन्नई, श्री भंवरलालजी सांखला मेटुपालयम को एवं मुझे इस ग्रन्थ के निर्माण की प्रबल प्रेरणा दी। इस ग्रन्थ को ४०० पृष्ठों में ही प्रकाशित करना था किंतु सामग्री आती गई, जुड़ती गई और यह ६०० पृष्ठों का विशालकाय ग्रंथ बन गया। पाँच खंडों में विभक्त ग्रंथ का संक्षिप्त वर्णन 'प्रस्तावना' में आ ही गया है। ग्रंथ-कार्य विशाल था, तथापि पूर्णाहूति करते हुए मुझे आज अत्यधिक सन्तुष्टि है। ___ इस ग्रंथ की संरचना में सर्वप्रथम मैं स्वर्गीय श्रद्धेय गुरुदेव आचार्य-प्रवर श्री जीतमल जी म.सा. के अदृष्ट आशीर्वाद के प्रति प्रणत हूँ तदनन्तर गुरुवर्या महासती श्री सुगनकंवर जी म. के साक्षात् आशीर्वाद के प्रति नतमस्तक। क्यों कि उन्हीं के द्वारा प्रदत्त ज्ञान ने इस ग्रंथ-संपादन में अहं भूमिका निभाई है। परम श्रद्धेय श्री सुमनमुनि जी महाराज के वरदहस्त एवं सत्कृपा का ही यह सुफल है कि यह कार्य सानंद सम्पन्न हो सका। मुनि श्री सुमंतभद्र जी महाराज एवं मुनि श्री प्रवीणकुमार जी महाराज की भी सतत प्रेरणा भी बनी रही।। मद्रास विश्वविद्यालय के भूतपूर्व प्राध्यापक तथा जैन दर्शन के ख्याति प्राप्त विद्वान् डॉ. श्री छगनलालजी शास्त्री एम.ए. (त्रय), पी.एच.डी. ने इस ग्रन्थ की सुंदर प्रस्तावना लिखी है, अतः मैं उपकृत हूँ उनके प्रति। समाजसेवी, शिक्षाप्रेमी व साहित्यकार श्री दुलीचंद जी जैन (सचिव : जैन विद्या अनुसंधान प्रतिष्ठान, चेन्नई) ने न केवल संयोजन एवं सामग्री-संकलन में योगदान दिया अपितु इस ग्रंथ के पंचम खण्ड में प्रकाशित अंग्रेजी लेखों का सम्पादन भी किया है तथा चतुर्थ खंड हेतु "सुमन साहित्यः एक अवलोकन” विषयक आलेख भी लिखा है जो कि अत्यन्त सारगर्भित एवं समीक्षात्मक है अतः आभार प्रदर्शन ! ग्रन्थ-प्रकाशन हेतु भी उन्होंने पूर्ण सक्रिय सहयोग प्रदान किया है। आत्मप्रिया विदुषी बहन श्रीमती विजया कोटेचा का तो मैं अत्यन्त ही आभारी हूँ। उनकी दूरभाष के माध्यम से निरंतर 'विजयी भव' की प्रेरणा प्राप्त होती रहती थी जिससे ग्रंथ-लेखन की थकान पुनः स्फूर्ति एवं उमंग में परिवर्तित हो जाती थी। बहन विजया ने प्रज्ञामहर्षि श्रद्धेय श्री सुमनमुनि जी म. के प्रवचनों से सूक्तियों एवं प्रवचनांशों का प्रभावी संकलन किया है। “सुमन वाणी” “सुमनवचनामृत” एवं “सुमन प्रवचनांश" की प्रस्तोता बनकर मेरे कार्य को और भी सुगम बना दिया। हिन्दी-साहित्य के सुलेखक श्री विनोदजी शर्मा का भी मैं आभारी हूँ कि उन्होंने दिल्ली से आकर “पंजाव श्रमण संघ परंपरा” आलेख लिखा एवं अन्य सामग्री संपादन में मुझे सहयोग प्रदान किया। उनके साथी श्री सुनील जैन का कार्य भी प्रशंसनीय रहा। सुश्री चंदना गादिया, घोड़नदी के प्रति भी साधुवाद अर्पित करता हूँ कि उसने मेरे द्वारा संशोधितसम्पादित आलेखों की अतीव सुन्दर एवं सुवाच्य मुद्रण पाण्डुलिपियाँ तैयार करने में सोत्साह श्रम दिया एवं सद्भावपूर्ण सहयोग प्रदान किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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