Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1 Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 10
________________ विषयभूत पर में से अहंपना मेरेपन की बुद्धि छुड़ाकर स्वज्ञेय रूप निजात्मतत्व में आत्मबुद्धि कराई जावेगी। जो संसार के अभाव का एकमात्र उपाय है। संक्षेप में कहो तो प्रमाण के विषयभूत निज आत्मद्रव्य में छहद्रव्यों के भेदज्ञान द्वारा अहंपना, स्थापन किया था, उस ही आत्मद्रव्य में अपने ही गुण पर्यायों के स्वरूप को समझकर, उनमें भी भेदज्ञान उत्पन्न कर, एकमात्र शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत निज आत्मद्रव्य में अहंपना स्थापन कराने के उपायों की विवेचना दूसरे भाग में करने का संकल्प है। __ तीसरे भाग में अपने त्रिकाली ज्ञायक भाव में अहंपना स्थापन करने की जो विधि दूसरे भाग के द्वारा विकल्पात्मक ज्ञान में समझ ली गई हो, उस विधि को अपने अन्दर प्रयोग किसप्रकार किया जावे अर्थात् विकल्पात्मक ज्ञान, निर्विकल्पात्मक रूप में परिणत कैसे होयह समझने का प्रयास किया जावेगा। जिसप्रकार वर्तमान शिक्षा पद्धति में, पद्धति का ज्ञान कर लेने पर भी अगर वह छात्र उसका प्रयोग नहीं कर पावे तो उसको उस विषय में अनुत्तीर्ण समझा जाता है। ठीक उसीप्रकार जिस पद्धति को अपनाने का ज्ञान इस जीव ने समझा हो. उसका प्रयोग अपनी परिणति में करके अपने त्रिकाली ज्ञायक भाव की अनेक प्रकार से महिमा लाकर, उसमें अहंपना स्थापन करवाना है। जो भी अन्य ज्ञेय, पर रूप से मेरे जानने में आते हैं, वह सब भी मेरी ज्ञान की पर्याय ही हैं। अतः मेरे को जानने में भी उनके प्रति किंचित भी आकर्षण नहीं है, मुझे तो एकमात्र मेरा आत्मा ही ज्ञेयरूप से प्रतिभासित हो रहा है। अतः ज्ञेय रूप भी मैं हूँ और ज्ञान रूप भी मैं ही हूँ, आदि- आदि निर्णयों की दृढ़ता के माध्यम से सहज ही उपयोग को कहीं भी जाने का आकर्षण समाप्त होकर मात्र एक स्वआत्मा ही सर्वश्रेष्ठ निवास स्थान लगने लगे, तब आत्मा का उपयोग सहज रूप से स्वसन्मुख होकर दौड़ने लगता है। उस स्थिति में आत्मा के सभी गुण उस परिणति के अनुगामी होकर आत्मा के सन्मुख हो जाने से आत्मा परमशांत निर्विकल्प दशा का सहज ही पान करके कृतकृत्य हो जाता है। ऐसे जीव की पर के प्रति आसक्ति टूट जाने पर सहज रूप से वैराग्य परणति जीवन में,प्रस्फुटित हो जाती है। उन सब दशाओं का तीसरे भाग में वर्णन करने का संकल्प है। ___ इसप्रकार उपरोक्त पुस्तक के तीनों भागों की संक्षिप्त रूपरेखा है मेरा उपयोग जिनवाणी माता की शरण में ही रहे, मात्र इसी भावना से यह प्रयत्न किया है; अन्य कोई प्रयोजन नहीं - नेमीचंद पाटनी (VIII) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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