Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 9
________________ भागों में विभक्त कर अलग-अलग तीन पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जायेगा । प्रथम भाग में 'वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था' दूसरे भाग में 'आत्मा की अन्तर्दशा, भेदज्ञान एवं तत्त्व निर्णय' एवं तीसरे भाग में 'आत्मद्रव्य में अहंपने के द्वारा आत्मानुभूति' विषय पर चर्चा होगी। पहले भाग का विषय तो विषय सूची से स्पष्ट होगा, पहले भाग में उपरोक्त विषय प्रारम्भ करने के पूर्व एक (विषय-प्रवेश) के नाम से प्रथम अध्याय है । उसमें समझने की जिज्ञासा कैसे पात्र जीव को उत्पन्न होती है, उसकी पूर्व भूमिका का विवेचन है क्योंकि वर्तमान के जीवन में ही जो जीव संतुष्ट है, इस पर्याय को ही जो सर्वस्व मानकर बैठा है, जिसको वर्तमान में दुःख नहीं लगा हो, ऐसा जीव सुखी होने के उपाय की खोज ही क्यों करेगा ? इसलिये आत्मार्थी जीव को वर्तमान पर्याय की अनिश्चितता आदि के ज्ञान के माध्यम से संसार देह और भोगों में विरक्ति उत्पन्न कराकर आत्मा में पात्रता प्राप्त कराने का प्रयास किया गया है । पात्रता के बिना प्रस्तुत प्रकरण में प्रवेश होना संभव नहीं है, श्रीमद् राजचन्दजी ने कहा भी है “पात्र बिना वस्तु न रहै, पात्रे सम्यग्ज्ञान" इसप्रकार प्रथम भाग में उपरोक्त विषयों का स्पष्टीकरण गुरुउपदेश से प्राप्त आगम के आधारपूर्वक स्वानुभव से परीक्षा कर अनेक युक्तियों के माध्यम से सीधी-सादी भाषा में प्रस्तुत किया गया है F पहले भाग के विषय को हृदयंगम करने के पश्चात् जिस आत्मार्थी जीव ने छः द्रव्यों से भिन्न विकारी निर्विकारी पर्यायों सहित केवल मात्र अपने आत्मद्रव्य में ही अहंपना, मम्पना स्थापित कर लिया है तथा पर द्रव्यों में करने धरने सम्बन्धी विकल्प के उत्पन्न होते रहने पर भी तथा भाषा भी उसीप्रकार की निकलते रहने पर भी, अपनी श्रद्धा एवं अभिप्राय में अपने द्रव्य की सभी प्रकार की पर्यायों के अतिरिक्त, परद्रव्यों में कर्तृत्व के अनादि से समागत, मिथ्या, अहंकार को समाप्त कर दिया है ऐसे आत्मार्थी छः द्रव्यों के साथ भेद विज्ञान उत्पन्न करव में स्वबुद्धि एवं पर में परबुद्धि स्थापित कर ली है, पर के प्रति उपेक्षाबुद्धि खड़ी की हो, छ: द्रव्यों से अहम्पना दूर कर, अपने गुण, पर्याय के समुदायरूप आत्मद्रव्य में अहंपना स्थापित कर लिया हो, ऐसे उस आत्मार्थी खोजक जीव को दूसरे भाग में अपने आत्मा के अन्दर निरन्तर उठने वाली अपनी अनन्त पर्यायों में छिपी हुई त्रिकाली आत्मज्योति को भेदज्ञान के माध्यम से रागद्वेष आदि आस्रवबंध भावों में हेयबुद्धि उत्पन्न कराकर, संवर एवं निर्जरा रूप निर्मल पर्याय अर्थात् सम्यग्दर्शनादि पर्यायों को उपादेय तत्त्व के रूप में स्वीकार कराकर विकारी पर्यायों के अभावरूप मोक्षदशा प्राप्तव्य है- ऐसी श्रद्धा उत्पन्न कराने की विधि का वर्णन होगा साथ ही एकमात्र शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत, निजआत्मा में अहंपना स्थापित कराकर, पर्यायार्थिक के. Jain Education International - (VII) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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