Book Title: Sudarshan Charit
Author(s): Udaylal Kashliwal
Publisher: Hindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay

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Page 11
________________ सुदर्शन-चरित। शुरवीरोंसे वह शोभित थी और इसी लिए शत्रुलोगोंका उसमें प्रवेश न था। वह इन बातोंसे अयोध्या जैसी थी। अत्यन्त विशाल, भव्य, जिनभगवान्के मन्दिरोंसे उसने जो मनोहरता धारण कर क्खी थी उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो वह धर्मकी सुन्दर खान है। वे जिनमन्दिर ऊँचे शिखरों पर फहराती हुई ध्वजाओंके समूहसे, सोनेकी बनी हुई प्रतिमाओंसे, भामण्डल-छत्र-चवँर आदि उपकरणोंसे, बाजोंके मन मोहनेवाले सुन्दर शब्दोंसे और दर्शनोंके लिए आने-जानेवाले भव्यजनोंसे उत्सव और आनन्दमय हो रहे थे। वहाँ लोगोंको धर्मसे इतना प्रेम था-वे इतने धर्मात्मा थे कि सबेरे उठते ही सबसे पहले सामायिक करते थे। इसके बाद नित्य क्रियाओंसे छुट्टी पाकर वे भक्तिसे जिनभगवान्की पूजा करते, स्वाध्याय करते और फिर घरपर आकर दानके लिए पात्रोंका निरीक्षण करते। इसी प्रकार साँझको सामायिकादि क्रियायें करते, परमेष्ठिका ध्यान करते, वन्दना-स्तुति करते। यह उनकी शुभचर्या थी। इसके पालने में वे कभी आलस या प्रमाद नहीं करते थे। वे मिथ्यात्वसे सदा दूर रहते थे। साधु-महात्माओंके वे बड़े सेवक थे। धर्मसे उन्हें अत्यन्त प्रेम था। वे बड़े पुण्यवान् थे, ज्ञानी थे, दानी थे, धनी थे,, स्वरूपवान् थे, सुखी थे, और सम्यग्दर्शन, व्रत, शील आदि गुणोंसे भूषित थे। वे जब अपने उन्नत और सुन्दर महलोंपर अपने समान ही सुन्दर और गुणवाली अपनी स्त्रियोंके साथ बैठते तब ऐसा जान पड़ता था मानो स्वर्गोके देवगण अपनी देवाङ्गनाओंके साथ, बैठे हैं।

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