Book Title: Sudarshan Charit
Author(s): Udaylal Kashliwal
Publisher: Hindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay

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Page 27
________________ २२ । सुदर्शन-चरित। वह यह कि " मैं अपनी प्रिय पत्नी मनोरमाके सिवा संसारकी स्त्री-मात्रको अपनी माता-बहिनके समान गिनूँगा ।" इस धर्मलाभसे तथा मुनिराजके पवित्र गुणोंसे सुदर्शनको बड़ा ही आनन्द . हुआ-उसका चित्त खूब ही प्रसन्न हुआ। वह उन्हें बार बार प्रणाम कर अपने घर लौट आया। सुदर्शनने अब अपना घरका सब कारोबार सम्हाला । पुत्रको वह स्वयं विज्ञान, कला कौशल आदिकी शिक्षा देने लगा । धर्मकी ओर भी उसकी पूर्ण सावधानी थी। वह भक्तिपूर्वक रोज देव-गुरुकी सेवा-पूजा करता था, सुपात्रोंको शक्ति और श्रद्धासे दान देता था, जिनवाणीका मनन-चिंतन करता था, और धमकी प्राप्ति हो, वैराग्य बढ़े, इसके लिए वह मन-वचन-कायकी शुद्धिसे निरतिचार बारह व्रतोंका पालन करता था। इसके सिवा वह अष्टमी और चतुर्दशीको घरगिरिस्तीका सब आरंभ-सारंभ छोड़कर प्रोषधोपवास करता था और रातमें मुनिसमान सर्व त्यागी हो मसानमें कायोत्सर्ग ध्यान करता था। शंकादि दोष रहित सम्यग्दर्शन, पवित्र आचार-विचारों, और शुभ भावना ओंसे धर्मलाभ करता हुआ वह ऐसा शोभता था जैसा मानों धमकी साक्षात् प्रतिमा हो-मूर्तिमान् धर्म हो । इस धर्मके फलसे उसे जो सुख, जो ऐश्वर्य, जो भोगोपभोग-सामग्री प्राप्त हुई उसे उसने अपनी प्रियाके साथ साथ खूब भोगा। सच है धर्मसे मनचाही धन-सम्पत्ति प्राप्त होती है और धन-सम्पत्तिसे काम-पुरुषार्थकी प्राप्ति होती है और जो निस्पृह होकर इन्हें भी छोड़ देता है फिर उसके सुखका तो पूछना ही क्या । वह तो मोक्षके सुखको प्राप्त कर लेता है, जो

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