Book Title: Sudarshan Charit
Author(s): Udaylal Kashliwal
Publisher: Hindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay

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Page 40
________________ सुदर्शन संकटमें । [ ३५ - बना रहा । इतना सब कुछ करनेपर भी उसे जब ऐसा निश्चल देखा तब वह खीजकर उसे अपने कन्धेपर उठाकर चलती बनी । सुदर्शन तब भी अपने ध्यानमें वैसा ही अचल बना रहा, मानों जैसा काठका पुतला हो । उस कामके कालको घायने छुपाकर महारानीके सोनेके महल में ला खखा । अभगमती सुदर्शनकी अनुपम रूप-सुन्दरता देखकर बड़ी प्रसन्न हुई । उसने तब स्वयं सुदर्शनसे प्रेमकी भीख माँगी। वह बोली- प्राणनाथ, स्वामी, आप मुझे अत्यन्त प्यारे हैं। आपकी इस अलौकिक सुन्दरताको देखकर ही मैंने आपपर प्रेम किया है- मैं आपपर जी - जानसे निछावर हो. चुकी हूँ । इसलिए हे प्राणप्यारे, मेरे साथ प्रेमकी दो बातें कीजिए और कृपाकर मुझे संभोग सुखसे परितृप्त कीजिए। मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मेरे साथ जिन्दगीके सफल करनेवाले भोगोंको भोगें । इत्यादि काम - विकार पैदा करनेवाले शब्दोंसे अभयमतीने पवित्र हृदयी सुदर्शनसे बहुत कुछ प्रार्थना कर उसे उत्तेजित करना चाहा, पर सुदर्शनने अपने शरीर और मनको तिलतुस मात्र भी न हिलाया चलाया । उसकी यह हालत देखकर अभयमती बड़ी खिन्न हुई । उसने तब ईर्षासे चिढ़कर सुदर्शनको उठाकर अपनी सेजपर सुला लिया और अपनी कामलिप्सा पूर्ण हो, इसके लिए उसने नाना भाँति कुचेष्टायें करना शुरू किया। वह हाव-भाव - विलास करने लगी, -गाने लगी, नाचने लगी, नाना भाँतिका शृंगार कर उसे मोहने लगी कटाक्ष फेंकने लगी, सुदर्शनका बारबार मुँह चूमने लगी, उसके शरीरसे लिपटने लगी, उसके हाथोंको उठा-उठाकर अपने स्तनोंपर

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