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४.६ ] सुदर्शन-चरित । और यहाँ क्यों आया? तब उस यक्षने सुदर्शनको बड़ी भक्तिसे नमस्कार कर और बड़े सुन्दर शब्दोंमें उसकी प्रशंसा करना आरंभ की। वह बोला-हे बुद्धिवानोंके शिरोमणि, तू धन्य है, तू बड़े बड़े महात्माओंका गुरु है, और धीरोंमें महा धीर है, धर्मात्माओंमें महा धर्मात्मा और गुणवानोंमें महान् गुणी है, चतुरोंमें महा चतुर और श्रावकोंमें महान् श्रावक है। तेरे समान गंभीर, गुणोंका समुद्र, ब्रह्मचारी, लोकमान्य और पर्वतके समान अचल कोई नहीं देखा जाता । तुझे स्वर्गके देवता भी नमस्कार करते हैं तब औरोंकी तो बात ही क्या। यह तेरे ही शीलका प्रभाव था जो हम लोगोंके आसन कम्पायमान हो गये । देवता आश्चर्यके मारे चकित रह गये। सारे लोकमें एक विलक्षण क्षोभ हो उठा-सब घबरा गये । तूही काम, क्रोध, लोभ, मान, माया आदि शत्रुओं और पञ्चेन्द्रियोंके विषयोंपर विजय प्राप्त करनेवाला संसारका एक महान् विजेता और दुःसह उपसर्गोका सहनेवाला महान् बली है। तेरे ही शीलरूपी मंत्रसे आकृष्ट होकर यहाँ आये मैंने तेरा उपसर्ग दूर किया। मुझे भी इस महान् धर्मकी प्राप्ति हो, इसलिए हे धीर, हे गुणोंके समुद्र, और कष्टके समय भी क्षोभको न प्राप्त होनेवाले-- न घबरानेवाले हे सचे ब्रह्मचारी, तुझे नमस्कार है । उस धर्मात्मा यक्षने इस प्रकार सुदर्शनकी प्रशंसा और पूजा कर उसपर फूलोंकी वर्षा की, मन्द-सुगन्ध हवा चलाई और नाना भातिके मनोहर बाजोंके शब्दोंसे सारा आकाश पूर दिया। इसके सिवा उसने और भी कितनी ऐसी बातें की जो आश्चर्य पैदा करती थीं। इन बातोंसे उस यक्षने बहुत पुण्यक्ध किया ।