________________ सुदर्शनका धर्म-श्रवण [47 ::. इसके बाद वह यक्ष अभयमतीकी जितनी नीचता और कुटिलता थी वह सब राजा और सर्वसाधारण लोगोंके सामने प्रगट कर तथा राजाकी जितनी सेना उसकी मायासे हत हुई थी उसे जिलाकर और सुदर्शनके चरणोंको बारंबार नमस्कार कर स्वर्ग चला गया / . अभयमतीको जब यह सुन पड़ा कि एक देवताने सुदर्शनकी रक्षा करली और अपनी जितनी कुटिलता और नीचता थी उसे राजापर प्रगट कर दिया, तब वह राजाके भयसे गलेमें फांसी लगाकर मर गई / उसने पहले जो कुछ पुण्य उपार्जन किया था उसके फलसे वह पाटलीपुत्र या पटनामें एक दुष्ट व्यन्तरी हुई। . और वह अभयमतीकी धाय, जो सुदर्शनको मसानसे लाई थी, सुदर्शनके शीलके प्रभावको देखकर राजाके भयसे भागकर पटनामें आ गई / वह यहाँ एक देवदत्ता नामकी वेश्याके पास ठहरी। दो-चार दिन बीतने पर उसने उस वेश्यासे अपना सब हाल कहकर कहा-देखोजी, बुद्धिमान् सुदर्शन बड़ा ही अद्भुत ब्रह्मचारी है ! उसने कपिलासी चतुर और सुन्दर स्त्रीको झूठ-मूठ कुछका कुछ समझा कर ठग लिया / एक दिन वह ध्यानमें बैठा था, उस समय मैंने अनेक विकार चेष्टाये की, पर तो भी मैं उसे किसी तरह ध्यानसे न डिगा सकी / इसी तरह रानी अभयमतीने उसपर मोहित होकर अनेक उपाय किये और अनेक उपद्रव किये, पर वह भी उसके ब्रह्मचर्यको नष्ट न कर सकी और आखिर मर ही गई / इस प्रकार स्त्रियों द्वारा किये गये सब उपसर्गोको सहकर वह अपने शील-धर्ममें बड़ा दृढ़ बना रहा। ऐसा विजेता मैंने कोई न. देखा।