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३८ ] सुदर्शन-चरित । वाली दीपिकाका तो हँसी-विनोदसे भी छूना अच्छा नहीं। आज मुझे इस बातकी बड़ी खुशी है कि मेरा शुद्ध शीलधम सफल हुआ। इन उपद्रवोंको सहकर भी वह अखंडित रहा। इस प्रकार पवित्र भावनाओंसे अपने हृदयको अत्यन्त वैराग्यमय बना कर बड़ी निश्चलताके साथ सुदर्शन शुभ ध्यान करने लगा और अभयमती द्वारा किये गये सब उपद्रवोंको-सब विकारोंको जीतकर बाह्य और अन्तरंगमें वनकी तरह स्थिर और अभेद्य बना रहा। अभयमती अपने इस प्रकार नाना भौति विकार-चेष्टाके करने पर भी सुदर्शनको पक्का जितेन्द्री और मेरुके समान क्षोभरहित-निश्चल देखकर बड़ी उद्विग्न हुई-बड़ी घबराई । तृण-रहित भूमिपर गिरी अग्नि जैसे निरर्थक हो जाती है, नागदमनी नामकी औषधिसे जैसे सर्प निर्विष हो जाता है उसी तरह रानी अभयमतीका झूठा अभिमान ब्रह्मचारी सुदर्शनके सामने चूर चूर होगया। उसके साथ वह बुरीसे बुरी चेष्टा करके भी उसका कुछ न कर सकी। तब चिढ़कर उसने अपनी धायको बुलाकर कहा-जहाँसे तू इसे लाई है वहीं जाकर इसी समय इसे फेंक आ। उसने बाहर आकर देखा तो उस समय कुछ कुछ उजेला हो चुका था। उसने जाकर रानीसे कहादेवीजी, अब तो समय नहीं रहा-सबेरा हो चुका । इसे अब मैं नहीं लेजा सकती। सच है, जो दुर्बुद्धि लोग दुराचार करते हैं, वे अपना सर्वनाश कर क्लेश भोगते हैं और पापबंध करते हैं। इसके सिवा उन्हें और कोई अच्छा फल नहीं मिलता। इस संकट दशाको देखकर रानी बड़ी घबराई। इससे उसे अपनेपर बड़ी भारी विपत्ति