Book Title: Sudarshan Charit
Author(s): Udaylal Kashliwal
Publisher: Hindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay

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Page 41
________________ ANNARY ३६ ] सुदर्शन-चरित। रखने लगी, अपनी और उसकी गुह्येन्द्रियसे सम्बन्ध कराने लगी, उसकी गुह्येन्द्रियको अपने हाथोंसे उत्तेजित करने लगी। इत्यादि जितनी ब्रह्मचर्यके नष्ट करने और कामाग्निकी बढ़ानेवाली विकार चेष्टायें हैं, और जिन्हें यदि किसी साधारण पुरुषपर आजमाई जायँ तो वह कभी अपनी रक्षा नहीं कर सकता, उन सबको करने में उसने कोई बात उठा न रक्खी । सुदर्शन उसके साथ विषयसेवन करे, इसके लिए उसने उसपर बड़ा ही घोर उपसर्ग किया। पर धन्य सुदर्शनकी धीरता और सहन-शीलताको जो उसने कामविकारकी भावनाको रंचमात्र भी जगह न दी; किन्तु उसकी वैराग्य-भावना अधिक बढ़े, इसके लिए उसने यों विचार करना शुरू किया-स्त्रियोंका शरीर जिन चीजोंसे बना है उनपर वह विचार करने लगा। यह शरीर हड्डियोंसे बना हुआ है। इसके ऊपर चमड़ा लपेटा हुआ है। इसलिए बाहरसे कुछ साफसा मालूम देता है, पर वास्तवमें यह साफ नहीं है। जितनी अपवित्रसे अपवित्र वस्तुयें संसारमें हैं, वे सब इसमें मौजूद हैं। दुर्गन्धका यह घर है । तब स्त्रियों के शरीरमें ऐसी उत्तम वस्तु कौनसी है, जो अच्छी और प्रेम करने योग्य हो ? कुछ लोग स्त्रियोंके मुखकी तारीफ करते हैं, पर यह उनकी भूल है। क्योंकि वास्तवमें उसमें कोई ऐसी वस्तु नहीं जो तारीफके लायक हो । वह रक्त-श्लेष्मसे भरा हुआ है। उसमें लार सदा भरी रहती है। फिर किस वस्तुपर रीझकर उसे अच्छा कहें ? क्या उसपर लपेटे हुए कुछ गोरे चमडे पर ? नहीं। उसे भी जरा ध्यानसे देखो तब जान

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