Book Title: Sudarshan Charit
Author(s): Udaylal Kashliwal
Publisher: Hindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay

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Page 39
________________ ३४ ] सुदर्शन-चरित । शरीरसे उसने बिल्कुल मोह छोड़ दिया था। बड़े धीरजके साथ वह ध्यान कर रहा था। गंभीरता उसकी समुद्र सरीखी थी । क्षमा पृथ्वी सरीखी थी । हृदय उसका निर्मल पानी जैसा था । कर्मरूपी वनको भस्म करनेके लिए वह अग्नि था । एकाकी था। शरीर भी उसका बड़ा ग्राण्डील बना था । उसे इस रूपमें देखकर वह धाय आश्चर्यके मारे चकित होगई। तब वह ध्यानसे किसी तरह चल जाय, इसके लिए उस दुष्टाने सुदर्शन से कुत्सित-विकार पैदा करनेवाले शब्दों में कहना शुरू किया - धीर, तू धन्य है | तू कृतार्थ हुआ, जो रानी अभयमती आज तुझपर अनुरक्त हुई । मैं भी चाहती हूँ कि तू सैकड़ों सौभाग्योंका भोगने वाला हो । उठ, चल | रानीने तुझसे प्रार्थना की है कि तू उसके साथ दिव्य भोगोंको भोगे - आनन्द - विलासमें अपनी जिन्दगी पूरी करे । इत्यादि बहुत देर तक उसने सुदर्शनको ध्यान से डिगानेके लिए प्रयत्न किया । परन्तु उसका सुदर्शनपर कुछ असर न हुआ। वह एक रत्तीभर भी ध्यान से न डिगा । यह देखकर सुदर्शनपर उसकी ईर्पा और अधिक बढ़ गई । तब उस दुष्टिनीने उस पापिनीने सुदर्शन के शरीरसे लिपटकर उसके मुँहमें अपना मुँह देकर, तथा उसकी उपस्थ-इन्द्री, नेत्र आदिसे अनेक प्रकारकी कुचेशयें - कामविकार पैदा करनेवाली क्रियायें कर, नाना भाँति भय, लोभ बताकर उसपर उपसर्ग किया उसके हृदय में कामकी आग भड़काकर उसे ध्यानसे चलाना चाहा; पर वह महा धीर-वीर, और दृढ़ निश्चयी सुदर्शन ऐसे दुःसह उपसर्ग होनेपर भी न चला और मेरुकी भाँति स्थिर

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