Book Title: Sudarshan Charit
Author(s): Udaylal Kashliwal
Publisher: Hindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay

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Page 48
________________ सुदर्शनका धर्म-श्रवण | [ ४३ राजाके आते ही उसने भी मायामई एक विशाल सेना देखते देखते तैयार करली और युद्ध करनेको वह रणभूमिमें उतर आया । दोनों सेनामें व्यूह-रचना हुई। दोनों ओरके वीर योद्धा हाथी, घोड़े आदिपर चढ़कर युद्धभूमिमें उतरे । यक्ष सुदर्शनकी रक्षाके लिए विशेष सावधान हुआ। दोनों सेनाकी मुठभेड़ हुई। बड़ा भयंकर और मृत्युका कारण संग्राम होने लगा। बड़ी देर होगई, पर जयश्रीने किसीका साथ न दिया । दोनों ओरकी सेना कुछ कुछ पीछी हटी। सेनाको पीछी हटती देखकर राजा और यक्ष दोनों ही वीर अपने अपने हाथीपर चढ़कर आमने-सामने हुए । राजाको सामने देखकर यक्षने उसके हितकी इच्छासे कहा- तू जानता है कि मैं कौन हूँ और मेरा बल जानता है तो सुन- मैं मनुष्य नहीं किन्तु देव हूँ और मेरा बल प्रचण्ड है । मेरे सामने तू मनुष्य जातिका एक छोटासा कीड़ा है। तब तू विचार देख कि मेरे बलके सामने तू कहाँ तक ठहर सकेगा ? इसलिए मैं तुझे समझाता हूँ कि तू व्यर्थ ही मेरे हाथोंसे न मर! तू तो महात्मा सुदर्शनकी चिन्ता छोड़कर सुखसे राज्य कर । राजा क्षत्रिय था और क्षत्रियोंके अभिमानका क्या ठिकाना ! उसने तब बड़े गर्वके साथ उस यक्षसे कहा- तू यक्ष है - विक्रियाऋद्धिका धारी देव है तो इसमें आश्चर्य करनेकी कौन बात हुई ? पर साथ ही तू क्या यह भूल गया कि. राजाओंके तुझसे हजारों देव नौकर हो चुके हैं - गुलाम रह चुके हैं। फिर तुझे अपने तुच्छ देव-पदका इतना अभिमान ? यह सचमुच . • कितना है? यदि नहीं विक्रियाऋद्धिका धारी

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