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सुदर्शनकी युवावस्था ।
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नष्ट होनेवाली है। जवानी रोगसे घिरी है। इन्द्रियोंका सुख दुःखका कारण है। बुद्धिमान् लोग उसे अच्छा नहीं कहते। इस संसारमें पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-बहिन आदि जितने संयोग हैं या भोगोपभोग हैं वे सब विनाशीक हैं-निश्चयसे नष्ट होनेवाले हैं। इसलिए समझदार लोगोंको उचित है कि जबतक शरीर नीरोग है, इन्द्रियाँ समर्थ हैं, और आयु नष्ट नहीं हुई है उसके पहले वे अपने आत्महितके लिए निर्दोष तपका साधन करें। तब मुझे योग्य है कि मैं भी योगी बनकर परम गुरुकी कृपासे मोहका नाशकर निर्दोष तप ग्रहण करूँ। इस विचारने वृषभदासके हृदयमें दूना वैराग्य बढ़ा दिया। उन्होंने तब अपने प्रिय पुत्र सुदर्शनको राजाकी संरक्षकतामें रखकर और आप बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका, सब धन-दौलतका तृणकी तरह परित्याग कर देव-दुर्लभ संयम--मुनिधर्म-के धारक योगी होगये । ___ इधर उनकी स्त्री जिनमती भी समाधिगुप्त मुनिराजको नमस्कार कर और सब परिग्रहको छोड़कर कर्मोकी नाश करनेवाली जिनदीक्षा ले आर्यिका होगई। इन दोनोंने जीवनपर्यन्त महान् तप किया। अन्तमें समाधिपूर्वक प्राणोंको छोड़कर ये उसके फलसे स्वर्गमें गये, जो कि दिव्य ऐश्वर्य और वैभवसे परिपूर्ण है।
___ सुदर्शन भी बड़ा ही धर्मात्मा था। उसने भी मुनिराजके पास मोक्षकी इच्छासे श्रद्धापूर्वक सम्यग्दर्शन और उसके साथ साथ पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत धारण किये और दान, पूजा, स्वाध्याय आदिके प्रतिदिन करनेकी प्रतिज्ञा की। अपनी इन्द्रियोंकी या विषयोंकी शान्तिके लिए उसने एक नियम किया ।