Book Title: Sudarshan Charit
Author(s): Udaylal Kashliwal
Publisher: Hindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay

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Page 31
________________ २६ ] सुदर्शन-चरित । सुदर्शन जाकर धीरेसे पलंगपर बैठ गया। कारण उसे तो यह ज्ञात न था कि इसपर कपिलकी स्त्री सोई हुई है। बैठकर उसने बड़े प्रेमसे पूछा-प्रियमित्र, आपको क्या तकलीफ है ? इतनेमें कपिलाने सुदर्शनका हाथ पकड़कर उसे अपने स्तनोंपर रख लिया और बड़ी दीनताके साथ वह सुदर्शनसे बोली-प्राणप्यारे, जिस दिनसे आपको मैंने देख पाया है तबसे मैं अपने आपे तकको खो चुकी हूँ। मृत्युकी सेनपर पड़ी पड़ी रात-दिन आपकी मंजुल मूर्तिका ध्यान किया करती हूँ। आज बड़े भाग्यसे मुझे आपका समागम लाभ हुआ। आप दयावान हैं, इसलिए मैं आपसे प्रेमकी भीख माँगती हूँ। मुझे संभोगदान देकर कृतार्थ कीजिए-मुझे कालके मुँहसे छुड़ाइए। सुदर्शन एकदम चोंक पड़ा। लज्जाके मारे वह अधमरासा हो गया। उसे काटो तो खून नहीं। वह कपिलाकी इस बीभत्स वासनाका क्या उत्तर दे। उस परम शीलवान्के सामने बड़ी कठिन समस्या आकर उपस्थित हुई। उसने तब बड़े नम्र शब्दोंमें कहा-बहिन, तू जिसकी चाह करती है, वह पुरुषत्वपना तो मुझमें है ही नहीं-मैं तो विषय-सेवनके बिल्कुल अयोग्य हूँ। और इसके सिवा तुझसी कुलीन घरानेकी स्त्रियोंके लिए ऐसा करना महान् कलंक और पापका कारण है। तुझे तो उचित है कि तू इस अजेय कामरूपी शत्रुको वैराग्यकी तलवारसे मारकर शीलरूपी दिव्य अलंकारसे अपनेको भूषित करे-अपने कामी मनको काबूमें रक्खे । क्योंकि जो स्त्री या पुरुष शील रहित हैं, अपवित्र हैं वे अपने शील-भंगके पापसे सातवें नर्कमें जाते हैं। इसलिए प्राणोंका छोड़ देना कहीं अच्छा है, पर

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