Book Title: Sudarshan Charit
Author(s): Udaylal Kashliwal
Publisher: Hindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay

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Page 32
________________ सुदर्शन संकटमें। २७ ] शील नष्ट करना अच्छा नहीं। कारण शील नष्ट करदेनेसे पापका बंध होता है, संसारमें अपकीर्ति होती है और अन्तमें अनन्त कष्ट उठाने पड़ते हैं। इस प्रकार बचन सुनकर कपिलाको सुदर्शनसे बड़ी नफरत होगई। उसने सुदर्शनको छोड़ दिया । सुदर्शन भी उसके घरसे निकलकर निर्विघ्न अपने घर पहुँच गया । अबसे वह और दृढ़ताके साथ अपने शील-धमकी रक्षा करने लगा । बड़े धर्म-साधन और सुखसे उसके दिन जाने लगे । पुण्यके उदयसे उसे सब कुछ प्राप्त हुआ। वसन्त आया । जंगलमें मंगल हुआ। वनश्रीने अपने घरको खूब ही सजाया। जिधर देखो उधर ही लतायें वसन्तका-अपने प्राणप्यारेका आगमन देखकर खिले फूलोंके बहाने मन्द मन्द मुसक्या रही थीं । आम्रवृक्ष अपनी सुगन्धित मंजरीके बहाने पुष्पवृष्टि कर रहे थे। उनपर कूजती हुई कोकिलायें बधाईके गीत गा रही थीं। था वन,पर वसन्तने अपने आगमनसे उसे अच्छे अच्छे शहरोंसे भी सुहावना और मोहक बना दिया था। वसन्त आया जानकर राना-प्रना अपने अपने प्रियजनको साथ लेकर वन-विहारके लिए उपवनोंमें आ जमा हुए । रानी अभयमती अपने सब अन्तःपुर और प्रिय सहेली कपिलाके साथ पुष्पक रथमें बैठकर उपवनमें जानेको राजमहलसे निकली। इसी समय सुदर्शनकी स्त्री मनोरमा भी प्रियपुत्र सुकान्तको गोदमें लिये रथमें बैठी वसन्तोत्सवमें शामिल होनेको जा रही थी। इस स्वर्गकीसी सुन्दरीको जाते देखकर अभयमतीने अपनी सखी-सहेलियोंसे पूछा-जिसकी सुन्दरता आँखोंमें

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