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सुदर्शन संकट में।
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और एक बात है । वह यह कि तेरा महल कोई ऐसा वैसा साधारण मनुष्यका घर नहीं, जो उसमें हर कोई बे रोक टोक चला आवे । उसे बड़े बड़े विशाल सात कोट घेरे हुए हैं। तब बतला उस शीलवान्का यहाँ ले आना कैसे संभव हो सकता है ? इसलिए तुझे ऐसा मिथ्या और निंदनीय आग्रह करना उचित नहीं । इससे सिवा सर्वनाशके तुझे कुछ लाभ नहीं। मैंने जो तेरे हितके लिए इतना कहा- तुझे दो अच्छी बातें सुनाई, इनपर विचार कर और अपने चंचल चित्तको वश करके इस दुराग्रहको छोड़ । अभयमतीको यह सब उपदेश कुछ नहीं रुचा । कामने उसे ऐसी अन्धी बना दिया कि उसका ज्ञान - नेत्र
सदा लिए जाता रहा । वह अपनी धायसे जरा जोरमें आकर बोली-मा, सुनो, बहुत कहनेसे कुछ लाभ नहीं । मेरा यह निश्चय है कि यदि मैं प्यारे सुदर्शन के साथ सुख न भोग सकी तो कुछ परवा नहीं, इसलिए कि वह सुख पर वश है । पर तब अपने प्यारेके वियोग में स्वाधीनतासे मरते हुए मुझे कौन रोक सकेगा ? मैं अपने प्यारे को याद करती हुई बड़ी खुशीके साथ प्राण - विसर्जन करूँगी - उन्हें प्रेमकी बलि दूँगी । अभयमतीका यह आग्रह देखकर उसकी धायने सोचा - यह किसी तरह अपने दुराग्रहको छोड़ती नहीं दिखती । तत्र लाचार हो उसने कहा-ना, ऐसा बुरा विचार न कर । थोड़ी धीरता रख। मैं इसके लिए कोई उपाय करती हूँ । इस प्रकार अभयमतीको कुछ धीर बँधाकर वह एक कुम्हार के पास गई और उससे कहकर उसने सात पुरुष-प्रतिमायें बनवाई। उनमें से पड़वाकी रातको एक प्रतिमाको अपने कन्धेपर