Book Title: Sudarshan Charit
Author(s): Udaylal Kashliwal
Publisher: Hindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay

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Page 24
________________ सुदर्शनकी युवावस्था । १९ गुरु- सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप, दान ये छह कर्म प्रतिदिन किये जाते हैं। इसी गृहस्थधर्मके विशेष भेदरूप ग्यारह प्रतिमायें हैं । क्रम-क्रमसे उन्हें धारण करता हुआ श्रावक इस धर्मकी अन्तिम श्रेणी तक पहुँचकर फिर दूसरे मुनिधर्मके योग्य हो जाता है । इस गृहस्थधर्मका साक्षात् फल है सोलह स्वर्गौकी प्राप्ति और परम्परा मोक्ष | दूसरा- मुनिधर्म है। यह सर्व त्यागरूप होता है, अत एव कठिन भी है । सहसा उसे कोई धारण नहीं कर पाता । उसमें जिन बातोंका त्याग किया जाता है या जो बातें ग्रहण की जाती हैं वह त्याग और ग्रहण पूर्णरूपसे होता है । कल्पना कीजिए, जैसे अणुव्रतों में पाँचवाँ अणुव्रत है 'परिग्रह-परिमाण ' । अर्थात् धन्य-धान्य, दासी - दास, सोना-चाँदी आदि दस प्रकार वस्तुओंका प्रमाण करना - अपनी लोकयात्रा के निर्वाह लायक वस्तुयें रखकर बाकी वस्तुओंका त्याग करदेना। यह तो गृहस्थधर्मके योग्य एकदेश- त्यागरूप अणुव्रत और इसी व्रतको मुनि जब धारण करते हैं तो वे सर्व-त्यागरूप धारण करेंगे - इन वस्तुओंमेंसे वे कुछ भी न रखकर सबका त्याग करदेंगे । वे घर-बार छोड़कर जंगलों में रहेंगे । इसी धर्मका दूसरा नाम है महाव्रत । इसमें पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति, पाँच समिति आदि आटाईस मूलगुण धारण किये जाते हैं । इस धर्म ही धारण कर सकते हैं जो बड़े धीर-वीर और साहसी होते हैं । इसके धारण करनेवाले योगी लोग बड़ी कठिन तपस्या करते हैं । वे गर्मी के दिनों में पहाड़ोंकी चोटियोंपर, वर्षाके दिनों में

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