Book Title: Sudarshan Charit
Author(s): Udaylal Kashliwal
Publisher: Hindi Jain Sahitya Prasarak Karyalay

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Page 23
________________ [ १८ सुदर्शन-चरित । धर्मके प्रसादसे धर्मात्मा जन तीन लोककी सम्पत्ति प्राप्त करते हैं । उसके लिए उन्हें कुछ प्रयत्न नहीं करना पड़ता । जो लोग इन्द्र और अहमिन्द्रका पद लाभ करते हैं, तीर्थकर होते हैं, आचार्य या संघाधिपति होते हैं वह सब इसी धर्मका फल है । तीन लोकमें जो उत्तमसे उत्तम सुख है, ऊँचीसे ऊँची भावनायें हैं - मनचाही वस्तुओंकी चाह है, वे सब हमें धर्मसे प्राप्त हो सकती हैं। धर्मराजके भयसे मौत भी भाग जाती है उसका कोई वश नहीं चलता और पापरूपी राक्षस तो उसके सामने खड़ा भी नहीं होता । धर्मसे बुद्धि निर्मल और पापरहित होती है, श्रेष्ठ और पवित्र होती है और उसमें सब पढ़ार्थ प्रतिभासित होने लगते हैं । सम्यग्दर्शन, ज्ञान-चारित्र आदि जितने संसार के हरनेवाले और मोक्ष-सुखके देनेवाले गुण हैं, वे सब धर्मात्मा जन धर्मके प्रभावसे प्राप्त करते हैं। कला, विज्ञान, चतुरता, विवेक, शान्ति, संसारके दुःखोंसे भय, वैराग्य आदि पवित्र गुण धर्मसे ही बढ़ते हैं। इस धर्मरूपी मंत्रका प्रभाव बहुत बढ़ा चढ़ा है | शिवसुन्दरी भी इससे आकर्षित होकर धर्मात्मा जनको अपना समागम-सुख देती है तब बेचारी स्वर्गकी देवाङ्गनाओंकी तो उसके सामने कथा ही क्या । इस प्रकार स्वर्ग और मोक्षका सुख देनेवाला जो धर्म है, उसे जिन भगवान् ने दो भागों में बाँटा है । पहला - गृहस्थधर्म, जो सरलतासे धारण किया जानेवाला एकदेशरूप है। इसमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणत्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकार ये बारह व्रत धारण किये जाते हैं और देव-पूजा,

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