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सुदर्शन-चरित।
रक्खा गया । सुदर्शन अपने योग्य खान-पानसे दिनों दिन दूजके चन्द्रमाकी तरह बढ़ने लगा। उसकी वह मधुर हँसी, तोतली बोली आदि स्वाभाविक बाल-विनोदको देखकर परिवारके लोगोंको अत्यन्त आनन्द होता था। उसके जैसे तो छोटे-छोटे सुन्दर हाथ-पाँव और उनमें वैसे ही छोटे-छोटे आभूषण पहराये गये, उनसे वह बड़ा ही सुन्दर दिखता था । उसकी बाल-बुद्धिकी चंचलता देखकर सबको बड़ी प्रसन्नता होती थी।
एक और सेठ इसी चम्पापुरीमें रहता था। उसका नाम सागरदत्त था । वह भी बड़ा बुद्धिवान् और धनी था। उसकी स्त्रीका नाम सागरसेना था। वृषभदास और सागरदत्तकी परस्परमें गाढ़ी मित्रता थी। इसी मित्रताके वश होकर एक दिन सागरदत्तने वृषभदाससे कहा-प्रियमित्र, मेरी प्रियाके जो सन्तान होगी और वह यदि लड़की हुई तो मैं उसका ब्याह आपके सुदर्शनके साथ ही करूँगा । यह सम्बन्ध अपने लिए बड़ा सुखका कारण होगा।
भावना निष्फल नहीं जाती, इस उक्तिके अनुसार सागरदत्तके बड़ी सुन्दरी और गुणवती लड़की ही हुई । उसका नाम रक्खा गया मनोरमा । वह भी दिनोंदिन बढ़ने लगी।
इधर सुदर्शनने मुग्धावस्थाको छोड़कर कुमारावस्थामें पाँव रक्खा । रूपसे, तेजसे, शरीरकी सुन्दरता और गठनसे वह देवकुमारसा दिखने लगा । उसे सुन्दरतामें कामदेवसे भी बढ़कर देखकर वृषभदासने बड़े वैभवके साथ देव-गुरु-शास्त्रकी पूजा की और इसी शुभ दिनमें उसे गुरुके पास पढ़नेको भेज दिया।