________________ 14 ] एक महान् विद्वान् के पास सभी दर्शनों का अध्ययन किया। ग्रहणशक्ति, तीव्रस्मृति तथा आश्चर्यपूर्ण कण्ठस्थीकरण शक्ति के कारण व्याकरण, तर्क-न्याय आदि शास्त्रों के अध्ययन के साथ ही वे अन्यान्य शास्त्रों की विविध शाखाओं के पारङ्गत विद्वान् भी बन गये। दर्शनशास्त्रों का ऐसा आमूल-चूल अध्ययन किया कि वे 'षड्दर्शन-वेत्ता' के रूप में प्रसिद्ध हो गये। उसमें भी नव्यन्याय के तो वे बेजोड़ विद्वान् बने और शास्त्रार्थ और वाद-विवाद करने में उनकी बुद्धि-प्रतिभा ने अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये। उन दिनों अध्यापन करनेवाले पण्डितजी को 30 रु० मासिक दिया जाता था। - काशी में गङ्गातट पर रहकर उपाध्यायजी ने 'ऐङ्कार' मन्त्र द्वारा सरस्वतीमन्त्र का जप करके माता शारदा को प्रसन्न कर वरदान' प्राप्त किया था जिसके प्रभाव से पूज्य यशोविजयजी की बुद्धि तर्क, काव्य और भाषा के क्षेत्र में कल्पवृक्ष की शाखा के समान बन गई। __ एक बार काशी के राज-दरबार में एक महासमर्थ दिग्गज विद्वान् -जो अजैन थे—के साथ अनेक विद्वज्जन तथा अधिकारी-वर्ग की उपस्थिति में शास्त्रार्थ करके विजय की वरमाला धारण की थी। उनके अगाध पाण्डित्य से मुग्ध होकर कांशीनरेश ने उन्हें 'न्यायविशारद' विरुद से सम्मानित किया था। उस समय जैन संस्कृति के एक ज्योतिर्धर और जैन प्रजा के इस सपूत ने जैनधर्म और गुजरात की पुण्यभूमि का जय-जयकार करवाया तथा जैनशासन का गौरव बढ़ाया। काशी से विहार करके आप आगरा पधारे और वहाँ चार वर्ष रह 1. यह बात स्वयं उपाध्याय जी ने अपने ग्रन्थों में व्यक्त की है।