Book Title: Sthanang Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 690
________________ स्थानाङ्ग टीका-'छउमत्थवीयरागे' इत्यादि__छमस्थवीतरागः-छमानि ज्ञानावरणदर्शनावरणरूपे आवरणद्वये, अन्तराये च फर्मणि तिष्ठतीति छमस्थाअनुत्पन्न केवलज्ञानदर्शनः, वीतरागा-वितरागोदया-उपशान्तमोहत्वात् क्षीणमोहत्त्वाद् वा, स खलु मोहनीयवाः-मोहस्य क्षयी. दुषशमाद् वा मोहनीयकर्मप्रकृतिरहिताः सप्त कर्मप्रकृतीर्वेदयति अनुभवति, तद्यथा-ज्ञानावरणीयमित्यादि । सू० २७ ॥ सम्पति छमस्थ केवलिवक्तव्यचा प्रतिबद्धमेकं मूत्रमाह मूलम्-सत्त ठाणाई छउमत्थे सवभावेणं न पासइ, तं जहा-धम्मत्थिकायं १ अधम्मत्थिकायं २ आगासस्थिकायं ३, प्रतिबद्ध मृत्रका कथन करते हैं __ "छउमत्य वीयरागेणं" इत्यादि ।। सूत्र २७॥ ____टीकार्थ-ज्ञानावरण, दर्शनावरण रूप आवरण द्वयमें और अन्तराय कर्ममें जो रहता है, वह छद्मस्थ है, ऐसा छमस्थ अनुत्पन्न केवलज्ञान दर्शनवाला होनाहै, छद्मथ को जो वीतराग कहा गयाहै-वह वितरागो. दयवाला होनेसे कहा गया है-ऐसा यह छद्मस्थ वातरोग उपशान्त मोह होनेसे अथवा-क्षीण मोह होने से होताहै, यह छमस्थ वीतराग मोहनीय कर्मको प्रकृतियोंके क्षय हो जाने के अथवा उपशम हो जाने के कारण मोहनीय कर्मकी प्रकृतियों को छोड़कर सान कर्मों की प्रकृतियोंका वेदन करता है, वे सात कर्म कृतियां ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, आयु नाम गोत्र और अन्तराय हैं । स० २७ ॥ " छ उमत्य वीयरगेणं" त्यादि--(सू २७) ટીકાથ-જ્ઞાનાવરણ, અને દર્શનાવરણ રૂપ બે આવર જેની પર વ્યાપેલાં છે અને જેના અન્તરાય કમને ઉદય છે, એવા જીવને છવાસ્થ કહે છે. એ છસ્થ મનુષ્ય અનુત્પન્ન કેવળજ્ઞાન અને અનુત્પન્ન કેવળદર્શનવાળો હોય છે. અહીં છવાસ્થને જે વીતરાગ કહ્યો છે, તે વીતરાગોદયવાળો હોવાથી કહ્યો છે. ઉપશાત મેહ અને ક્ષીણમેહની અવસ્થાના સદૂભાવમાં જીવ છ-વીતરાગ બને છે. મેહનીયકર્મની પ્રકૃતિએને ક્ષય અથવા ઉપશમ થઈ જવાને કારણે તે છતા વીતરાગ મોહનીય કર્મની પ્રકૃતિને છોડીને સાત ની પ્રવૃતિઓનું વેદન કરે છે. તે સાત કર્મ પ્રકૃતિએ નીચે પ્રમાણે સથજી-- (१) ज्ञानापरलीय, (२) शनावरणीय, (३) वहनीय, (४) मायु, (५) नाम, (६) मात्र मन (७) अन्तराय. ॥ सू. २७ ॥

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