Book Title: Sthanang Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 749
________________ ७२७ सुधा टीका स्था ७ सू० ४६ विनयस्वरूपनिरूपणम् योर्यद गवेषणम् अन्वेषण तदेव । " आप्तगवेपणता" इतिच्छायापक्षे-प्राप्त स्वकीयो भूत्वा यत् साधु समुदाये मुस्थ दुःस्थयोः गवेपणं तदेव । " आर्तगवेपणता" इतिच्छायापक्षे तु-आर्त्तानां रोगादिपीडितानां कृते औपधादेर्यद् गवेषण तदेव ।५। देशकालज्ञता=अवसरोचितार्थे संपादनाभिज्ञता।६। तथा सर्वार्थेषु-गुर्वादीनां सफलप्रयोजनेषु अप्रतिलोमता=अविरुद्धता-अनुकूलतेति यावत् सू० ४६॥ अनन्तरं विनय उक्तः, विनयाच कर्मघातो भवति, कर्मघातश्च समुद्घाते विशिष्टतर इति समुद्धातपरूपणाय प्राह..मूलम्-सत्त समुरवाया पण्णत्ता, तं जहा-वेयणासमुग्घाए १, कलायसमुग्घाए २ मारणंतियसमुग्घाए ३, वेउव्वियसमुग्याए ४ तेजससमुग्घाए ५, आहारगसमुग्घाए ६ केवलिसमुग्याए । मणुस्साणं सत्त समुग्घाया पण्णत्ता, एवं चेव ॥सू०४७॥ इस छाया पक्ष में आप्त हो कर के-स्वकीय हो करके-ये अपने ही हैंइस प्रकार का विचार करके-जो साधु समुदाय में सुस्थ दुःस्थ की गवेषणा है वह आप्तगवेषणतो है, अथवा-" आते गवेषणता" इस पक्ष में ऐसा अर्थ होता है कि रोगादि से पीडित साधुजनों के लिये औषधादि की गवेषणा करना वह आत्तंगवेषणता है, देशकाल ज्ञता ६-अवसर के लायक जो अर्थ के संपादन की अभिज्ञता है वह देश कालज्ञता है। एवं गुरु आदिकों के समस्त प्रयोजनों में अनुकूल हो कर जो वर्तन है वह सर्वार्थों में अप्रतिलोमता है । सूत्र ४६ ॥ विनय अथवा-" आप्तगवेषणता" मा १२नी सकृत छाया मही सेवामा આવે, તે આ પદને આ પ્રમાણે અર્થ થાય છે-આપ્તજન તરીકે જ તેઓ મારા આસજન છે, આ પ્રકારને વિચાર કરીને સાધુ સમુદાયમાં સુસ્થ દુની ગવેષણ કરવી તેનું નામ આસગવેષણતા છે. અથવા તે પદની સંસ્કૃત છાયા "आर्तगवेषणता" वेवामा सावे, तो मही सव। मथ थाय छे ४-रेगा. દિથી પીડાતા સાધુઓને માટે ઔષધાદિની ગવેષતા છે. (6) शsadi-मसरने काय मथने ( पाने ) सपाहन ४२. વાની જે અભિજ્ઞતા છે, તેનું નામ દેશકાલજ્ઞતા છે. (૭) સમસ્ત પ્રજમાં ગુરુ આદિકેને અનુકૂવ થઈ જનારું જે વર્તન छ, ते नाम सर्थािमा मतिमता छ. ॥ सू. ४६ ॥

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