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(२३) ॥अज० ॥४॥ उकुरा जग जानतें श्रधिकी, चरन करन धनकी॥शद्धि वृद्धि प्रगटे निज नामे, ख्याति अकिंचनकी ॥ अज० ॥५॥ अनुनव बिनु गति कोउ न जाने, अलख निरंजनकी॥जस गुन गावत प्रीति निवाहो, उनके समरनकी ॥ अज०॥६॥ __पद त्रीजुं ॥ राग धन्याश्री॥ परम प्रनु सब जन शब्दें ध्यावे ॥ जब लग अंतर नरम न नांजे, तब लग कोउ न पावे ॥ परम ॥१॥ सकल अंश देखे जग जोगी, जो खिनु समता श्रावे॥ ममता अंध न देखे याकों, चित्त चिलं ठरे ध्यावे ॥ परम ॥२॥ सहज सगति अरु जगति सुगुरुकी, जो चित जोग जगावे ॥ गुनपरजाय दरवसुं अपने, तो लय कोउ लगावे ॥ परम ॥३॥ पढत पुरान बेद अरु गीता, मूरख अरथ न जावे ॥श्त उत फिरत लहत रस नांहि, जिलं पशु चर्चित चावे ॥ परम ॥४॥ पुन ससे न्यारो प्रजु मेरो, पुजल आप डिपावे ॥ उनसे अंतर नहीं हमारे, अब कहां जागो जावे ॥ परम॥ ॥५॥ अकल अलख अज अजर निरंजन, सो प्रनु सहज सुहावे ॥ अंतरजामी पूरन प्रगव्यो, सेवक जस गुण गावे ॥ परम ॥६॥इति ॥
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