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(1) मुगति॥ अब अचल अखंडित ज्योत, सदा सुखदा ३॥ ए आंकणी ॥ में रुट्यो चोराशी मांहे, मुल्यो में जरमा जुट्यो ॥ महारेजदये अनंतां पुःख, बांध्यां जब कर्म ॥ में कदियेक हर्ज रंक, फिस्यो तजि शरम ॥ फिस्यो॥अरु कदियेक राजा जयो, गरथको ग रम ॥ जब गरव आण कर बोल्यो, पारकां मर्म ॥ पार॥ पण निर्मल जुगमें जैन, कीयो नहीं धर्म ॥ अब मनख जनममें चेत, घडी सुन थारे ॥ घमी० ॥ अब० ॥१॥ में सुर नरका सुख वास, अ नंती पाया ॥ अनं० ॥ महारे शिव समताका सूख, हाथ नहीं आया ॥ में कुगुरु ने कुदेव, जला कर ध्या या ॥ जला ॥ में ऊलयो अनादि अग्यान, विषय लोग नाया ॥ में पड्यो लोजके फंद, जोडतो माया ॥ जोड ॥ पण लग्यो अंत जब श्राय, कालने खा या ॥अब परहर सब परमाद, धर्म कर ना रे ॥ धर्मः॥ अब० ॥२॥अब पुर्खन अवसर लही, तूं सुकृत कर रे ॥तू सुकृ०॥ अब दान शीयल तप जा व, हीयामें धर रे ॥ तुं करमकी माला काट, पाप प रिहर रे ॥पाप०॥ अब वार वार कहुं तोहे, जगत्सें तर रे॥ तुं निर्मल नयणे देख, नरकसुं मर रे ॥न
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