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॥ दोहा ॥ सारि सुरूप शुज प्रेमदा, रामा सरल स्वजाव; सदा सुदद सुज्ञान सो, पत्नि पुण्यहि मिलाव. १ असार या संसारमें, मृगलोचना सु सार; जास कुदि उत्पन्न नये, नोज नूप वर चारु. २ नारि नरकमें डालहीं, तातें करिय न नेहा यह प्रत्यददि राक्षसी, खेत सप्त सब देह. ३ सब जन निंदत तीयकू, जइ क्युं सबकी शत्र; मैं नारीकी नितुरता, वसत सु हिय सर्वत्र. ४ जो व्है नारि कुनारजा, तो फुःखको नहिं अंत; । ऐसो दुःख न व्है और जय, अनुजवतेहि दिखत.५ नारि यारि प्यार लगे, पे मारी देत येहा रावण जेसे मर गये, पर नारीके नेह. ६ साधु पुरुष नारीको, करत न स्पर्श कदाहि; तातें सर्वही पूज्य है, देखो प्रगट दिखाहि. ७ नारी विखकी वेल है, वासूं करहुं न यारि; स्पर्श करत विष चढत फिरि, कबहु उतरत न वारी. नारीकुं जो वंदही, कुकवि कहत सब ताहि; नारीकू जो निंदही, सुकवि सोहि कहाहि. ए
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