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( १३२ ) बोली वो न बोली जानै मूढ रूढ गूढ वानै, काहूकी न मैर याने राखे मुख थोथरा; गुनीको न गुन बूके गुनमें चौगुन सूकै, कबहु न पुष्ट रीजे नाट केसै पूतरा. नारी वेस्या दु बुरी, घरकि नरक्की खाणि पराइ पातरक रकसी, परसत लेवे प्राणनारी जैसी न डून्नरी, जगमें दुःख देनारी, धन होवे तो प्रिय हुवे, नहिं तो मारे मारी. १०६ नारी दुःखकी वेलडी, तिनसें केसी यारी; यौवन धनलुं याहरी, पिठे होइसी प्यारी. यौन लाख रु एक गुन, संतति देय उपा; ताहित कि किरनार यह, नेह न करीये जाई. १०० कन्न फटीखे मंकणी, सयल लोयकूं खाय; तो सदा भूखी रहे, कबहु नहि श्रघाय. नारी मोहकी जगनि है, करत मोह वस पैस; पिछे सदा फिरतो फिरे, ज्युं घांची को बैल. नारी नेह न कीजियें, नेहे होय विपास; विक्रम मन होवै सदा, धन यौवनको नास. नयणे वयणे जे मिले. ते जग विरली नारी; ruकमि पय नच्चावती, दीसे घर घर बारि. ११२
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